Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार
श्राराध्य तेऽखिला येन, त्रिदशाः सपुरंदराः । संघस्याराधने तस्य, विनीतस्यास्ति कः श्रमः ॥ ५० ॥
अर्थ - इंद्रनिसहित समस्त देव जा विनयवान करि आराधिए है ताकि संघ के आराधन विषें कहाँ श्रम है ||५० ॥
क्रोधमानादयो दोषाश्छिद्यं ते येन वैरदाः ।
न वैरिणो विनीतस्य तस्य संति कथंचन ॥५१॥ अर्थ -जा विनयवान करि वैरभाव के देनेवाले ऐसे जे क्रोधमानादिक परिणाम ते नाश कीजिए है ताकै कोई प्रकार भी वैरी न होय है । भावार्थ - विनयवानतें कोई वैर राखे नाहीं ॥ ५१ ॥
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कालत्रयेsपि ये लोके विद्यते परमेष्ठिनः
ते विनीतेन निःशेषाः, पूजिता वंदिताः स्तुताः ॥ ५२ ॥
अर्थ - - लोक मैं भूत भविष्यत् वर्त्तमान ऐसें तीनों काल विषें भी जे अर्हतादि परमेष्ठी विद्यमान है ते समस्त विनयवान पुरुष करि पूजे अर वंदे अर वचन करि गोचर किये ।
भावार्थ - जाकै विनय है ताकं समस्त परमेष्ठीनकौं भक्ति है ॥ ५२ ॥
गर्यो निखर्व्यते तेन जन्यते गुरुगौरवम् 1
प्रार्जवं दर्श्य ते स्वस्य, प्रश्रयं वितनोति यः ॥ ५३ ॥
अर्थ -- जो पुरुष विनयकौं विस्तारै है ता पुरुष करि आपका कषाय नाश कीजिए है अर गुरुनका मान उपजाइए है अर सरलभाव प्रवर्त्ताइए है ॥५३॥
विनीतस्यामला कीर्तिर्वभ्रमीति महीतले ।
सुखयं तीजनं सेव्या, कांतिः शीतरुचेरिव ॥५४॥
अर्थ -- विनयवान पुरुषकी निर्मल कीर्ति पृथ्वीतल विषे अतिशय करि भ्रम है, सर्व जगत में फैले है, कैसी हैं कीर्ति लोककौं सुख उपजावती है अर चन्द्रमाकी कांति समान निर्मल है ॥ ५४ ॥