Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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३१८]
श्री अमितगति श्रावकाचार
अभ्याख्यानं करस्फोटं, करेण करताडनम् । विकारमंगसंस्कार, वर्जयेद्यतिसन्निधौ ॥४१॥
अर्थ-यतीनके निकट विनयवान इतने कार्य न करे, ते कार्य बतावै हैं-थुक नाहीं अर सारा लेय प्रमाद सहित न बैठे, जम्भाई न लेय, अंग न तोडे, असत्य न बोलै, मजाख रागरूप हास्य वचन न बोलै, पाव न पसारै, लज्जाकौं कारण गुप्त बात प्रकट करि न कहै, हाथकी चुटकी न बजावै, हाथ करि हाथ न ताडै, विकार रूप चेष्ठा न करै, अंगकौं संवारै नाहीं इत्यादि और भी प्रमादरूप आचरण महंत पुरुषनिके निकट करना योग्य नाहीं ॥४०-४१॥
उच्चस्थानस्थितैः कार्या, वन्दना न तपस्विनः । न गति वामतः कृत्वा, विनीतैर्न च पृष्ठतः ॥४२॥
अर्थ-ऊँचे स्थानपरि तिष्ठतेनकरि तपस्वीनकी वन्दना करनी योग्य नाहीं अर विनयवाननि करि वाई तरफतें गमन करकै पाछतें वन्दना करनी योग्य नाहीं।
भावार्थ-मुनिनके दक्षिण तरफतें प्रदक्षिणारूप गमन करके वन्दना करनी, वाई तरफतें जायकरि पाछैतें वन्दना न करनी ॥४२॥
विधेति विनयोऽध्यक्षः, करणीयो मनीषिभिः । परोक्षेऽपि स साधूनामाज्ञाकरण लक्षणः । ४३॥
अर्थ-ऐसें मन वचन काय करि तीन प्रकार प्रत्यक्ष विनय करना योग्य है अर मुनिनकौं परोक्ष होते तिनकी आज्ञा करना है लक्षण जाका ऐसा परोक्ष विनय करना योग्य है ।।४३॥
संघे चतुर्विधे भक्त्या, रत्नत्रितयराजिते । विधातव्यो यथायोग्य, विनयो नयकोविदः ॥४४।।
प्रर्थ-नीति विषं चतूर जे पूरुष तिनकरि रत्नत्रयकरि शौभित जो मुनि आर्यिका श्रावक श्राविका ऐसा च्यार प्रकार संघ ता विर्षे यथायोग्य विनय करना योग्य है ॥४४॥