Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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द्वादशम परिच्छेद
[२६५
यो वेश्यावदनं निस्ते मूढो मद्या दिवासितम् । मद्यमांसपरित्यागवतं तस्य कुतस्तनम् ॥७२॥
प्रर्थ-जो मूढ मदिरा करि वासित जो वेश्याका मुख ताहि चूमैं है ताकै मदिरा मांसके त्यागरूप व्रत काहे ॥७२॥
वदनं जघनं यस्या नीचलोकमलाविलम् ।
गणिकां सेवमानस्य तां शौचं वद कीहशम् ॥७३॥
अर्थ-जो वेश्याका मुख अर जघन नीच लोकके मल करि मलिन है ता गणिकाकौं सेवता जो पुरुष ताकै पवित्रपना कैसा, कोई प्रकार पवित्रपना नाहीं ॥७३॥
या परं हृदये धत्ते परेण सह भाषते । ३ परं निषेवते लुब्धा परमाह्वयते हशा ॥७४॥
अर्थ-या वेश्या मनमैं अन्य पुरुषकौं धारै है अर औरके साथ बोले है अर लोभनी ीरकौं सेवै है अर दृष्टि करि औरकौं बुलावै है ॥७४॥
सरलोऽपि सदक्षोऽपि कुलीनोऽपि महानपि । ययेक्षुरिव निःसारः सुपर्वापि विमुच्यते ॥७॥
अर्थ-जा वेश्या करि मायाचारहित सरल भी अर चतुर भी अर कुलीन भी अर बड़ा भी अर सुपर्वा कहिये सुन्दर अंग सहित भी निःसार कहिये द्रव्य रहित होय सो सांठेकी ज्यौं त्यागिए है।
भावार्थ-जैसे सूधा भी भला भी अर कुलीन कहिये पृथ्वी विर्षे लीन भी बड़ा भी अर सूपर्वा कहिये भली है मुठोर जाकी ऐसा भी सांठा है सो सार रहित त्यागिए है तैसें वेश्या करि निःसार मनुष्य त्यागिए है ॥७॥
न सा सेव्या विधा वेश्या शीलरत्नं बियासता । जानानो न हि हिंस्त्रत्वं व्याघ्रों स्पृशति कञ्चन ॥७६॥