Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ - जो दांतनि करि तृण ग्रहण करे हैं ऐसे मृगादिक जीवनीकों जे मारे हैं ते दुराचारी दुष्ट जीव व्याघ्रनितें न्यारे कंसें कहिए है ।
भावार्थ - व्याघू भी मृगादिकक मारे है अर शिकारी भी मारे है। तातें दोनों समान ही हैं ||५||
ये मारयन्ति निस्त्रिशा ये मार्यते च विह्वलाः । तेषां परस्परं नास्ति विशेषस्तत्क्षणं विना ॥ ६६ ॥
अर्थ - जे निर्दयी मारे है अर जे विह्वल जीव मारिए है तिनकें परस्परता समयविना विशेष नाहीं ।
भावार्थ - वर्तमान समयतें तौ मारनेवाला अर जिनको मारै है ते जीव हीनाधिक हैं बहुरि आगे नरकादिक मैं परस्पर मारे है हां हीनाधिक नाहीं ॥६॥
स्वमांसं पहमांसेर्ये पोषयन्ति दुराशयाः । स्वमांसमेव खाद्यन्ते हठतो नारकैरिमे ॥७॥
अर्थ- जो दुष्टचित्त परजीवनके मांसनकरि अपना मांस पोषै है सो ये हठतें अपने मांसहीकौं नारकीन करि खवावें है ॥ ६७॥
स्वल्यायुर्किकलो रोगी विचक्षुर्वधिरः खलः । वामनः पामनः षंढो जायते स भवे भवे ॥ ६८ ।।
अर्थ - अल्प आयु अंगविकल रोगी नेत्ररहित बड़ा दुष्ट वामन कुष्टरोगी नपुंसक सो मांसभक्षी भव भव विषै होय है ॥ ६८ ॥
दुःखानि यानि दृश्यन्ते दुःसहानि जगत्त्रये । सर्वाणि तानि लभ्यन्ते प्राणिमर्दनकारिणा ॥ ६६ ॥ अर्थ - तीन लोक विषै जे दुःसह दुख देखिए हैं ते सर्व दुःख प्राणीनकी हिंसा करने वाले करि पाइए है ॥६६॥