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________________ ३०० ] श्री अमितगति श्रावकाचार अर्थ - जो दांतनि करि तृण ग्रहण करे हैं ऐसे मृगादिक जीवनीकों जे मारे हैं ते दुराचारी दुष्ट जीव व्याघ्रनितें न्यारे कंसें कहिए है । भावार्थ - व्याघू भी मृगादिकक मारे है अर शिकारी भी मारे है। तातें दोनों समान ही हैं ||५|| ये मारयन्ति निस्त्रिशा ये मार्यते च विह्वलाः । तेषां परस्परं नास्ति विशेषस्तत्क्षणं विना ॥ ६६ ॥ अर्थ - जे निर्दयी मारे है अर जे विह्वल जीव मारिए है तिनकें परस्परता समयविना विशेष नाहीं । भावार्थ - वर्तमान समयतें तौ मारनेवाला अर जिनको मारै है ते जीव हीनाधिक हैं बहुरि आगे नरकादिक मैं परस्पर मारे है हां हीनाधिक नाहीं ॥६॥ स्वमांसं पहमांसेर्ये पोषयन्ति दुराशयाः । स्वमांसमेव खाद्यन्ते हठतो नारकैरिमे ॥७॥ अर्थ- जो दुष्टचित्त परजीवनके मांसनकरि अपना मांस पोषै है सो ये हठतें अपने मांसहीकौं नारकीन करि खवावें है ॥ ६७॥ स्वल्यायुर्किकलो रोगी विचक्षुर्वधिरः खलः । वामनः पामनः षंढो जायते स भवे भवे ॥ ६८ ।। अर्थ - अल्प आयु अंगविकल रोगी नेत्ररहित बड़ा दुष्ट वामन कुष्टरोगी नपुंसक सो मांसभक्षी भव भव विषै होय है ॥ ६८ ॥ दुःखानि यानि दृश्यन्ते दुःसहानि जगत्त्रये । सर्वाणि तानि लभ्यन्ते प्राणिमर्दनकारिणा ॥ ६६ ॥ अर्थ - तीन लोक विषै जे दुःसह दुख देखिए हैं ते सर्व दुःख प्राणीनकी हिंसा करने वाले करि पाइए है ॥६६॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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