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________________ द्वादशम परिच्छेद [ २६६ वि बोलना इत्यादि परिचय करता संता वृद्ध पुरुष भी बाहुल्य पनै दूषिष होय है तौ तरुण पुरुष कस दूषित न होय ? होय ही होय ॥ ८६-६० ॥ विवुद्धयेति महादोषं पररामा मनीषिभिः । विवा दूरतः सद्भिर्भु जगीव भयंकरा ॥१॥ अर्थ-या प्रकार महादोष जानिकें बुद्धिवान सत्पुरुषनि करि परस्त्री भयंकर सर्पिणीकी ज्यौं दूरतें त्यागनी योग्य है ॥६१॥ आगें-शिकारका निषेध करै हैं - नामापि कुरुते यस्या गृहीतं गुरु कल्मषम् । मृगया सा त्रिधा हेया भवदुःखविभीरुणा ॥२॥ अर्थ-जाका नाम भी बड़ा पाप करै है सो शिकार खेलना संसारत भयभीत जो पुरुष ताकरि मन वचन कायतें त्यागने योग्य है ॥२॥ - त्रस्यन्ति सर्वदा दोनश्चलतः पर्णतोऽपि ये। हिंस्यन्ते तेऽपि यैर्जीवास्तेभ्यः के निघृणाः परे ॥३॥ अर्थ-जे दीन जीव चालते पत्तासें भी सदाकाल त्रासकौं प्राप्त होय हैं ते भी मृगादिक जीव तिन शिकारीन करि मारिए है तिनतें सिवाय और निर्दयी कौन है ॥६३॥ निरागसः पराधीना नश्यन्तो भयविह्वलाः । कुरंगामनिहन्यन्ते पापिष्ठा न परे ततः ।।६४॥ __ अर्थ-अपराध रहित अर पराधीन अर भय करि व्याकुल नाशकौं प्राप्त होते भागते ऐसे हरिण जिनकरि मारिए है तिनके सिवाय और दूसरे पापी नाहीं ॥१४॥ गृह्णतोऽपि तृणं दन्तैर्देहिनो-मारयन्ति ये । व्याघ्रभ्यस्ते दुराचारा विशिष्यते कथं खलाः ॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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