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श्री अमितगति श्रावकाचार ।
भावार्थ -परस्त्री सेवनेवालेके वध बन्धनादि सर्व ही होय है ॥८॥
लिंगच्छेदं खरारोपं कुलालकुसुमार्चनम् ।
जननिंदामभोगत्वं लभते पारदारिकः ॥८६॥
अर्थ-परस्त्रीका सेवनेवाला पुरुष है सो लिंगका छेदना गधापै बैठावना अर कुलालकुसुम कहिए छैनां कंडा तिनकरि पूजन कहिए मारना अर लोकनिंदा अर भोगरहितपना इत्यादि पावै है ॥८६॥
लब्ध्वा विडम्बनां गुर्वीमत्र प्राप्तः स पंचताम् । श्वभ्रे यदुःखमाप्नोति कस्तद्वर्णयितुं क्षमः ॥१७॥
अर्थ-सो परस्त्री सेवनेवाला इस लोक विषं बडी विडम्बनाकौं पाय करि मरणकौं प्राप्त भया नरक विर्षे जो दुःख पावै है ताहि वर्णन करनेकौं कौन समर्थ है ? ॥८७॥
एकांते यौवनध्वांते नारों नेदीयसी सतीम् । दृष्ट्वा क्षुभ्यति धीरोऽपिका वार्ता कातरे नरे ॥१८॥
अर्थ-एकांतमैं यौवनरूप अंधकार विर्षे शीलवंत वृद्धानारीकौं देखि करि धीर पुरुष भी क्षोभकौं प्राप्त होय है तो कायर पुरुष विर्षे कहा वार्ता है, वह तो क्षोभकौं प्राप्त होय ही होय ॥१८॥
जल्पनं हसनं कर्म* क्रीडा वक्रावलोकनम् । प्रासनं गमनं स्थानं वर्णनं भिन्न भाषणम् ॥८६॥ नार्या परिचयं साद्धं कुर्वाणः परकीयया ।
वृद्धोऽपि दूष्यते प्रायस्तरुणो न कथं पुनः ॥६०॥
अर्थ-परस्त्री के साथ बोलना हसना कार्य करना क्रीडा करना मुख देखना बैठना गमन करना ठाडे रहना वर्णन करना एकांत
* संस्कृत प्रतियोमें “कर्म" इसके स्थानमैं "नर्म" ऐसा पाठ है ।