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द्वादशम परिच्छेद
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इति दोषवती मत्त्वा, मृगया हितकांक्षिणा। नानानर्थकरी त्याज्या, राक्षसीब विभीषणा ॥१०॥
अर्थ--या प्रकार दोष सहित जानिकै हितका वांछक जो पुरुष ताकरि अनेक अनर्थनकी करनहारी राक्षसी समान भयकारी जो शिकार सो त्यागना योग्य है ।।१६६॥
भोजनं कुर्वता का,यं मौनं शीलवता सदा । सन्तोषित्वमिवानिय, भक्ष्यशुद्धिविधायिना ॥१०१॥
अर्थ जैसे भिक्षाशुद्धिका आचरण करनेवाला जो मुनि ताकरि अनिंद्य सन्तोषीपना करना योग्य है तैसैं भोजन करता जो शीलवान सत्पुरुष ताकरि मौन करना योग्य है ॥१०१।।
सर्वदा शस्यते जोषं, भोजने तु विशेषतः । रसायनं सदा श्रेष्ठं, सरो गित्वे पुनर्न किम् ॥१०२॥
अर्थ-मौन सदाकाल सराहिए है अर भोजनमैं तो विशेष सराहिए है। जैसे औषध सदा भली है बहरि सरोगीपने विर्षे कैसें भली न होय ॥१०२॥
सन्तोषो भाव्यते तेन, वैराग्यं तेन दृश्यते । संयमः पोष्यते तेन, मौनं येन विधीयते ॥१०३॥
अर्थ-जाकरि मौन करिए है ताकरि सन्तोष भाइए है ताकरि वैराग्य देखिए है ताकरि संयम पोषिए है ॥१०३॥
वाचो व्यापारतो दोषा, ये भवंति दुरुत्तराः । ते सर्वेऽपि निवार्यते, मौनव्रतविधायिना ॥१०४॥
अर्थ-वचनके व्यापारते जे दुःखसै उतरे जाय ऐसे दोष हैं ते सर्व ही मौन व्रतके धारक पुरुष करि निवारिए है ॥१०४॥
सागरोऽपि जनो येन, प्राप्यते यतिसंयमम् । मौनस्य तस्य शक्यंते, केन वर्णयितुंगुणाः ॥१०॥