Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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द्वादशम परिच्छेद
[२९७
प्राप्यापि कष्टकष्टेन तां देशे यत्र तत्र वा। किं सुखं लभते भीतः सेवमानस्त्वरान्वितः ॥१॥
अर्थ-बहुरि जिस तिस क्षेत्र वि कष्ट कष्ट करि परस्त्रीकौं पायकरि भी भयभीत आतुरता सहित सेवता संता कहां सुख पावै है ? किछू भी सुख न पावें है ॥८३॥
या हिनस्ति स्वकं कांतं सा जारं न कथं खला। विडाली याऽत्ति पुत्रं स्वं सा कि मुंचति मूषिकाम् ॥१२॥
अर्थ-जो स्त्री अपने पतिकौं मारै है सो दुष्टनी यारकौं कैसें नाहीं मार है जैसे जो विलाई अपने पुत्रकौं खाय है सो मूसेकौं न खाय ? खाय ही है ॥२॥
यावद्दर्श कुचेतस्रकाः किं वृण्वंति परांगनाम् ।
न पापतः परो लाभः कदाचित्तत्र विद्यते ॥३॥ ___अर्थ-ऐसी परस्त्रीकौं खोटे हैं चित्त जिनके ऐसे पुरुष हैं ते क्यों भोग हैं ? जातें परस्त्री सेवन विर्षे पाप समान और लाभ नाहीं . है ॥३॥
या स्वं मुंचति भर्तारं विश्वासस्तत्र कीदृशः ।
को विश्वासमते स्नेहः किं सुखं स्नेहतो विना ॥४॥ अर्थ-जो स्त्री अपने भरतारकौं छोडै ता विषं विश्वास कैसा? अर विश्वास बिना स्नेह बिना सुख कहां ॥४॥
वधो बंधो धनभ्रंशस्तापः शोकः कुलक्षयः । प्रायासः कलहो मृत्युः पारदारिक बांधवाः ॥८॥
अर्थ-वध कहिए नाम अर बन्ध बन्धन अर धनका नाश अर सन्ताप अर शोक अर कुलका क्षय अर खेद अर कलह अर मरण ये परस्त्री सेवनेबालेके बांधव हैं।