Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
२६२ ]
श्रीअमितगति श्रावकाचार |
अर्थ - जैसे जहां अग्नि होय है तहां वृक्षनकी जाति उत्पन्न न होय है तैसे जहां जूवा प्रवत्त है तहां लक्ष्मी न तिष्ठै है ||५७॥
मातुरध्युत्तरायं या हरते जनपूजितम् ।
कर्तव्य परं तस्य कुर्वतः कीदृशी या ॥ ५८ ॥
अर्थ – जो जूवा खेलनेवाला पुरुष सो लोक मैं मान्य जो माताका लुगड़ा ताकौं भी हर लेय है तिसके और अकार्य करतेकै कैसी लज्जा । भावार्थ – कोऊ भी अकार्य करने मैं जूवावालेकै लज्जा नाहीं, ऐसा
जानना || ५८ ॥
सम्पदं सकलां हित्वा स गृह्णाति महाऽऽपदम् । स्वकुलं मलिनीकृत्य वितनोति च दुर्यशः ॥ ५६ ॥
अर्थ – सो जूवा खेलनेवाला पुरुष समस्त सम्पदाकौं त्याग करि महा आपदा ग्रहण करे है, बहुरि अपने कुलकौं मलिन करकै खोटा यश विस्तारै है ||५||
नारकैरपरैः क्रुद्धेर्नारकस्येव मस्तके |
निखन्य कितवैस्तस्य दुर्ज्यालो ज्वाल्यतेऽनलः ॥ ६० ॥
अर्थ - जैसे अन्य क्रोधायमान भए जे नारकी तिन करि नारकी मस्त विषै थापि करि दुःखकारी है ज्वाला जाकी ऐसा अग्नि जलाइये है तैसें जुबान करि जुवारीके सिर परि अग्नि जलाइए है ।। ६० ।।
कर्कशं दुःश्रवं वाक्यं जल्पतो वंचिताः परे । कुर्बति द्य तकारस्य कर्णनासादिकर्त्तनम् ॥ ६१ ॥
अर्थ - जिनका धन ठिगलिया ऐसे जे अन्य द्यूतकार हैं ते कठोर अर कानानिको दुःखदाई वचन बोलते सन्ते जुवा खेलनेवाले के कान नासिका आदि अंगनिकों का हैं ॥ ६१ ॥