Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ-तहां शय्या विषं तिष्ठते देवनि करि च्यारों तरफतें रची है हस्तांजलि जिननें ऐसे देवदेवीनके समूह देखिए है ॥१०४।।
स्तुवानामां स्ततैः श्रव्य व्याभरणभासुराः । मूर्ताः केऽमी विलोक्यंते पुण्यपुजा इवाभितः ॥१०॥
पर्थ-सुनने योग्य स्तोत्रनि करि स्तुति करते अर सुन्दर आभूषणनकरि देदीप्यमान मूर्तीक पुण्यके समूह समान ये च्यारों तरफ कौन देखिए है ऐसें नवीन देव विचार हैं ।।१०५॥
रम्याः रामा ममेमाः काश्चित्रचाटुपरायणाः । लावण्यांनिधेर्वेला लोकंत कलनिस्वनाः ॥१०६।।
अर्थ- रमने योग्य अर नाना प्रकार खुशामदमैं तत्पर अर सुन्दरताके समुद्रकी वेला सुन्दर हैं शब्द जिनके ऐसी स्त्री मोकौं देखे हैं ॥१०६॥
किमिदं दृश्यत स्थानं रामणीयकमन्दिरम् । कथमत्राहमायातः किं स्वप्नोऽयमुतान्यथा ॥१०७॥
अर्थ-सुन्दरताका मन्दिर ये कौन स्थान दीखै है। इहां मैं कैसे आया अथवा कहां यह स्वप्न है ।।१००॥
किमकारि मया पुण्यं जातो येनात्र बंधुरे । न पुण्यव्यतिरेकेण लभ्यते सुखसंपदा ॥१०८॥
अर्थ- अथवा मैं कहा पुण्य करत भया जाकरि इस सुन्दर स्थान विर्षे उपज्या । पुण्य विना सुखसंपदा न पाइए है ॥१०८।।
इत्यं चितयतां तेषां भवकारणकोऽवधिः । संपद्यते तदां दीप्तः पूर्वसंबंधसूचकः ॥१०॥
अर्थ-या प्रकार विचारते जे देव तिनकै भव ही है कारण जाक ऐसा भवप्रत्यय अवधि अतिशयकरि देदीप्यमान पहले सम्बन्धका सूचक उपजै है ॥१०॥