Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार
छोड़िकै फेर संसारमें नाहीं आवै है, जातें सुखदायक ठिकानेकौं छोड़िक दुःखदायक ठिकानेकौं कौन प्राप्त होय अपितु कोई भी न होय || २१|| बहुरि जिनका आकाशकी ज्यौं नित्य अर निर्मल अर बड़ा जो सुख ताका प्रमाण कदाचित् भी न पाइये है || २२ || बहुरि जे सुखरूप लोकके अग्र शिखर परि तिष्ठे सन्ते कर्मरूप नटवा करि निरन्तर नचाया जो लोक ताहि देखें हैं ।
कर्मकरि जीवनिकी नाना अवस्था होय है तिनकौं अवलोकै है परन्तु रागादिकके अभावतैं आप सुखरूप तिष्ठे हैं ||२३|| बहुरि जिनके स्मरण मात्र करि पुरुषनिका पाप भागी जाय है ते सिद्ध भगवान् मन वचन कायकी क्रिया करि कैसें पूजने योग्य नाहीं, अपितु पूजने ही योग्य है ॥२४॥
चारयंत्यनुमन्यते
पंचाचारं चरंति ये ।
जनका इव सर्वेषां जीवानां हितकारणम् ॥ २५ ॥ येषां पादपरामर्शे जीवा मुंचंति पातकम् सलिलं हिम रश्मीनां चन्द्रकांतोपला इव ॥ २६ ॥ उपदेश: स्थिरं येषां चारित्रं क्रियतेतराम् । से पूज्य' से त्रिधाssचार्या पदं वर्य यियासुभिः ॥२७॥ अर्थ - जे दर्शनाचार, ज्ञानाचार, चारित्राचार, तप आचार, वीर्याचार ये जो पंच आचार सर्व जीवनिक आचरण करावे है अर आप आचरण करें हैं जैसें पिता हितका आचरण करावं तैसें ॥२५॥ बहुरि जिनके चरणका स्पर्श होत सन्तें जीव पापकों त्यागे है जैसें चन्द्रमाकी किरणनिका स्पर्श होत सन्तें चन्द्रकांत पत्थर जलकौं छोड़े तैसें ॥२६॥ बहुरि जिनके उपदेशनि करि चारित्र अतिशय करि स्थिर कीजिए है ते आचार्य श्र ेष्ठपद जो मोक्षपद ताहि जानेकी है वांछा जिनके ऐसे पुरुषनिकरि मन वचन कायतें पूजिए हैं ॥२७॥