Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ - संसार वंरीते भयभीत जो पुरुष ताकै गुरुकी साखि ग्रहण करे जे समस्त व्रत तिनकी रक्षा करना सो शील कहिए है ॥४१॥
साक्षीकृता व्रतादाने कुर्वते परमेष्ठिनः ।
भूपा इव महादुःखं विचारे व्यभिचारिणः ॥४२॥
अर्थ - व्रत ग्रहण विषै साक्षी किये जे परमेष्ठी हैं ते विचार विषे व्यभिचार करता जो पुरुष ताकौं राजानकी ज्यों महान् दुःख करे हैं ।
भावार्थ–जैसें राजाकै आगे किछु प्रतिज्ञा करै अर तामैं भूल जाय तो दण्ड पावै तैसें अहंतादिकनिकै आगें लीनी जो आंकडी तामैं भंग होय तो महादुःख पावै । यद्यपि अर्हतादिक वीतराग हैं उनके दुःख देनेका किछु प्रयोजन नहीं तथापि अपने ही परिणामनिकी मलिनतातें पाप बांधि नरकादि दुःख भोगं है, ऐसा जानना ॥ ४२ ॥
एकदा ददते दुःखं नरनाथास्तिरस्कृताः । गुरवो न्यक्कृता दुःखं वितरंति भवे भवे ॥४३॥
अर्थ - तिरस्कार किये भए राजा हैं ते तो एकवार ही दुःख देय हैं अर निराकरण भये गुरु हैं ते भव भव विषे दुःख देय हैं ।
भावार्थ - गुरूनके अनादर करि महापाप बंध होय है तातें जीव नरकादिविषे महादुःख पाव है ||४३||
भक्षयित्वा विषं घोरं वरं प्राणा विसर्जिताः । न कदाचितं भग्नं गृहीत्वा सूरिसाक्षिकम् ॥ ४४ ॥
अर्थ - भयानक विषकौं साध करि त्यागे भये प्राण हैं ते श्रेष्ठ हैं अर आचार्यकी साखि व्रतकौं ग्रहण करि भंग करना श्रेष्ठ नाहीं ।
भावार्थ - मरण होय तो हो परन्तु आंकड़ी भंग करना योग्य नाहीं ॥४४॥