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________________ २८८ ] श्री अमितगति श्रावकाचार अर्थ - संसार वंरीते भयभीत जो पुरुष ताकै गुरुकी साखि ग्रहण करे जे समस्त व्रत तिनकी रक्षा करना सो शील कहिए है ॥४१॥ साक्षीकृता व्रतादाने कुर्वते परमेष्ठिनः । भूपा इव महादुःखं विचारे व्यभिचारिणः ॥४२॥ अर्थ - व्रत ग्रहण विषै साक्षी किये जे परमेष्ठी हैं ते विचार विषे व्यभिचार करता जो पुरुष ताकौं राजानकी ज्यों महान् दुःख करे हैं । भावार्थ–जैसें राजाकै आगे किछु प्रतिज्ञा करै अर तामैं भूल जाय तो दण्ड पावै तैसें अहंतादिकनिकै आगें लीनी जो आंकडी तामैं भंग होय तो महादुःख पावै । यद्यपि अर्हतादिक वीतराग हैं उनके दुःख देनेका किछु प्रयोजन नहीं तथापि अपने ही परिणामनिकी मलिनतातें पाप बांधि नरकादि दुःख भोगं है, ऐसा जानना ॥ ४२ ॥ एकदा ददते दुःखं नरनाथास्तिरस्कृताः । गुरवो न्यक्कृता दुःखं वितरंति भवे भवे ॥४३॥ अर्थ - तिरस्कार किये भए राजा हैं ते तो एकवार ही दुःख देय हैं अर निराकरण भये गुरु हैं ते भव भव विषे दुःख देय हैं । भावार्थ - गुरूनके अनादर करि महापाप बंध होय है तातें जीव नरकादिविषे महादुःख पाव है ||४३|| भक्षयित्वा विषं घोरं वरं प्राणा विसर्जिताः । न कदाचितं भग्नं गृहीत्वा सूरिसाक्षिकम् ॥ ४४ ॥ अर्थ - भयानक विषकौं साध करि त्यागे भये प्राण हैं ते श्रेष्ठ हैं अर आचार्यकी साखि व्रतकौं ग्रहण करि भंग करना श्रेष्ठ नाहीं । भावार्थ - मरण होय तो हो परन्तु आंकड़ी भंग करना योग्य नाहीं ॥४४॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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