SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 302
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ द्वादशम परिच्छेद [२८७ अर विद्याधरनिके लोकविष विद्याधरनि करि पूजिये है ॥३७॥ सकामा मन्मथालापा निविडस्तनमंडलाः। रमण्यो रमणीयांगा रमयं ति जिनाचिनः ॥३८॥ अर्थ-जिनदेवकी पूजा करनेवाले पुरुषकौं रमणीक जे स्त्री रमाबें हैं ते स्त्री कामसहित हैं अर मधुर है शब्द जिनके अर कठोर है कुचमण्डल जिनके अर सुन्दर हैं अंग जिनके ऐसी हैं। भावार्थ-जिनपूजा विर्षे पुण्यबन्ध होय है ताकरि देवादि पद विष अनेक स्त्री मिलै है ॥३८॥ पवित्रं यन्निरातंक सिद्धानां पदमव्ययम् । दुष्प्राप्य विदुषामर्थ्य , प्राप्यते तज्जिनार्चकैः ॥३९॥ अर्थ-जिनदेवके पूजक जे पुरुष तिनकरि मुक्त जीवनका पद जो मोक्षसुख सो पाइये है । कैसा है मुक्त जीवनिका पद रागादि मलरहित है पवित्र हैं अर संसार रोगरहित है अर अविनाशी है अर दुर्लभ है अर ज्ञानीनिकरि वांछने योग्य है ऐसो पद जिनपूजक पावै हैं । भावार्थ- जिनपूजाके परिणामके निमित्त पाय परम्पराय रत्नत्रय आराधकै मोक्ष होय है ॥३६॥ जिनस्तवं जिनस्नानं, जिनपूजां जिनोत्सवम् । कुर्वाणो भक्तितो लक्ष्मों लभते याचितां जनः ॥४०॥ . अर्थ-जिनदेवका स्तवन जिनदेवका अभिषेक जिनदेवकी पूजा महा उत्सव इनकौं भक्तितें करता संता मनुष्य है सो वांछित लक्ष्मीकौं पावै हैं ॥४०॥ इहां तांई पूजाका वर्णन किया । आगें शीलका वर्णन करै हैं :_ संसारारातिभीतस्य, व्रतानां गुरुसाक्षिकम् । गृहीतानामशेषाणां, रक्षणं शीलमुच्यते ॥४१॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy