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श्री अमितगति श्रावकाचार
शरीरविर्षे भी वांछा रहित हैं ॥३२॥ बहुरि जे आदर सहित भण्डारकी ज्यौं दर्शन ज्ञान चारित्ररूप रत्नत्रयकौं रक्षा करै हैं ते भव्य जीवनके बांधव जे साधु भगवान ते सत्पुरुषनि करि आराधिए है ॥३३॥
अर्चयद्धयस्त्रिधां पुभ्यः पंचेति परमेष्ठिनः । नश्यति तरसा विध्ना विडालेभ्य इवाऽऽखवः ॥३४॥
अर्थ-या प्रकार पंच परमेष्ठीनकौं पूजते जे पुरुष तिनतें विघ्न शीघ्र नाशकौं प्राप्त होय हैं, जैसें बिलावनतें मूसा नसें तैसें ।
भावार्थ-पंच परमेष्ठीनके पूजनादिकतें शुभ परिणाम बन्धे हैं तातें अन्तरामकर्म का अनुभाग हीन होय है, तब विघ्न न होय है, ऐसा जानना ॥३४॥
पूजयति न ये दोना भक्तितः परमेष्ठिनः । संपद्यते कुतस्तेषां शर्म निदितकर्मणाम् ॥३५।।
अर्थ-जे दोन अज्ञानी पुरुष पंच परमेष्ठीनकौं न पूजे हैं तिन नीच कर्मीनके सुख कहांत होय, अपितु नाहीं होय, ऐसा जानना ॥३५॥
इन्द्राणां तीर्थकत्तणां केशवानां रथांगिनाम् । संपदः सकलाः सद्यो जायते जिनपूजया ॥३६॥
अर्थ-इन्द्रनिकी तीर्थंकरनिकी नारायणनिकी चक्रवत्तिनकी जे समस्त संपदा हैं ते जिनपूजा करि शीघ्र होय हैं ॥३६।।
मानवैर्मानवावासे त्रिदर्शस्त्रिदशालये । खेचरैः खेचरावासे पूज्यते जिनपूजकाः ॥३७॥
अर्थ- जिनदेवकी पूजा करनेवाले पुरुष हैं ते मनुव्यलोक विर्षे तो मनुष्यनि करि पूजिये हैं अर देवलोकविष देवनि करि पूजिये है