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द्वादशम परिच्छेद
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उन्नतेभ्यः ससत्वेभ्यो येभ्यो दलितकल्मषाः । जायंते पावना विद्यः पर्वतोश्य इवाऽऽ५ गाः ॥२८॥
अर्थ--जिनतें, नाश किया है पाप जिनमें ऐसी पवित्र विद्या उपजै है । जैसें पर्वतनतें नही उपज तैसें, कैसे हैं। ते बड़े हैं अर पराक्रम सहित हैं ॥२८॥
चरन्तः पंचधाचारं भवारण्यदवानलम् । द्वादशांगश्रुतस्कन्धं पाठयंति पठन्ति ये ॥२६॥
प्रर्थ-बहरि जे संसार वनकौं दावानल समान जो पंचाचार ताहि आचरण करै हैं । बहुरि जो बारह अंगरूप थि त स्कन्धकौं पढ़ावे हैं अर पढ़े हैं ॥२६॥
यषां वचो हदि स्नाता न संति मलिना जनाः । तेऽयंते न कथं दक्षरुपाध्याया विरेपसः ॥३०॥
अर्थ-जिनके वचनरूप सरोवर विर्षे न्हाये जन हैं ते मलिन न होय हैं ते पापरहित उपाध्याय भगवान चतुर पुरुषनि करि कैसे न पूजिए, पूजिए ही है ॥३०॥
औरनंगानलस्तीवः संतापितजगत्रयः । विध्यापितः शमांभोभिः पापपंकायसारिभिः ॥३१॥ दिधक्षवो भवारण्या ये कुर्वति तपोऽधनम् । निराकृताखिलग्रन्था निस्पृहाः स्वतनावपि ॥३२॥ निधानमिव रक्षतियेरत्नत्रयमाहताः । ते सद्धिर्वरिवस्यते साधवो भव्यबांधवाः । ३३॥
अर्थ-संतापकौं प्राप्त किये हैं तोन लोक जानें ऐसी जो कामरूप तीव्र अग्नि सो जिननें पापरूप कीचके दूर करनेवाले जे शांत भावरूप जल तिन करि उड़ाया है ॥३१॥ बहुरि जे संसारवनकौं दग्ध करनेके वांछक पापरहित तपकौं करें हैं। कैसे हैं ते साधु निराकरण किया है समस्त अन्तरङ्ग बहिरङ्ग परिग्रह जिननें बहुरि अपने