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द्वादशम परिच्छेद
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वसनभूषण_नः सकलैरपि शोभते ।
शोलेन बुधपूज्येन न पुनर्वजितो जनः ॥४५॥
अर्थ-सर्व वस्त्रनकरि आभूषणन करि रहित भी पुरुष सोहै हैं । बहुरि पंडितनि करि पूजनीक जो शील ताकरि रहित पुरुष न सोहै है ॥४५॥
सहजं भूषणं शीलं शीलं मंडनमुत्तनम् । पाथेयं पुष्कलं शीलं शीलं रक्षणमूजितम् ॥४६॥
अर्थ-शील है सो स्वभावरूप आभूषण है अर शील उत्तम मंडन है अर शील है सो घणी वटसारी है अर शील है सो बड़ा रक्षा करना है। शील ही जीवनिकी रक्षा करै है ॥४६॥
* शीलेन रक्षितो जीवो न केनाऽप्यभिभूयते ।
महाहृदनिमग्नस्व किं करोति दवानलः ॥४७॥ - अर्थ--जो पुरुषकी शील करि रक्षा कीजिए है सो काहूकरि भी तिरस्कारकौं प्राप्त नहीं होय है। जैसे बड़े सरोवरवि डूब्या पुरुषका दावानल क्या करि सके है तैसें ॥४७॥
बान्धवाः सुहृदः सर्वे निःशीलस्य पराङ मुखाः । शत्रवोऽपि दुराराध्याः संमुखाः सति शीलनः ॥४८॥
अर्थ-बांधव जन हैं ते तथा मित्र हैं ते सर्व शीलरहित पुरुषके परांगमुख होय है अर दुःखकरि आराधे जाय ऐसे शत्रु भी शीलवान पुरुषके सहायक होय हैं ॥४८॥
शीलतो न परो बन्धुः शीलतो न परः सुहृत् । शीलतो न परा माता शीलतो न परः पिता ॥४६
* यह लोक मूलप्रतिमें ४७ के नम्बर पर है और वचनिकाकी प्रतिमें ४६ के नम्बर पर है। .