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________________ २९० ] श्री अमितगति श्रावकाचार अर्थ - शील सिवाय और बन्धु नाहीं, शीलतें सिवाय और मित्र नाहीं, शीलतें सिवाय और माता नाहीं, शीलतें सिवाय और पिता नाहीं । भावार्थ - जीवका हितकारी शीलसिवाय और नाहीं ॥ ४६ ॥ उपकारो न शीलस्य कर्त्ता मन्येन शक्यते । कल्पद्र मफलं दत्ते परः कुत्र महीरुहः || ५० ॥ प्रर्थ - शीलसमान उपकार करनेकौं और समर्थ न हूजिए है, जैस कल्पवृक्ष फल देय है सो और कहां वृक्ष फल कहां देय है, कहूँ भी न देय है ॥५०॥ 1 तापेऽपि सुखितः शीली शीलमोची पुनर्जनः चित्रं जनांगुलिच्छायो स्थितोऽपि परितप्यते ॥ ५१ ॥ अर्थ – आचार्य कहै हैं बड़ा आश्चर्य है । देखो - शीलवान जीव है सो ताप कहिए धाम विषे भी सुखी है । बहुरि शीलका त्यागने - वाला है सो मनुष्य निकी अंगुलीकी छाया विषें तिष्ठ्या भी तप्तायमान हो है ॥ ५१ ॥ कदाचन न केनापि सुशीलः परिभूयते । न तिरस्त्रियते यो हि श्लाध्यते तस्य जीवितम् ॥ ५२ ॥ अर्थ - जो सुशील पुरुष कोऊ करि भी चलायमान न कीजिए है अर तिरस्कार न कीजिए है ताका जीवन सराहिए है ||५२ || भंगस्थान परित्यागी व्रतं पालयतेऽमलम् । तस्करैर्लु ट्यते कुत्र दूरतोऽपि पलायितः ॥ ५३ ॥ अर्थ - भंगस्थान कहिये जिस स्थान में शील भंग होय एसा स्थानका त्यागनेवाला पुरुष है सो निर्मल व्रतकौं पालै है । जैसे दूर हीते भाग्या जो पुरुष है सो चौरन करि लूटिए है, अपितु नाहीं लूटिए है ।
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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