Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार
जगदुत्पाद्यते सर्वमेकेनापि विवस्वताः । नक्षत्रनिवहः सरुर्वेदितैरपि नो पुनः ॥४॥
अर्थ-एक सूर्य करि ही समस्त जगत् प्रकाशरूप कीजिए है । बहुरि उदय भये भी सर्व नक्षत्रनिके समूह तिनकरि प्रकाशित न कीजिए है ॥१४॥
एकेनापि सुपात्रेण तीयते भवनीरधेः । सहस्त्रेरप्यपात्राणां पुजितैर्न पुनर्जनः ॥६५॥
अर्थ-उपरि दृष्टांत कह्या था ताका दृष्टांत कहिए है :-तैसे एक भी सुपात्र करि जीव संसार-समुद्रतै तारिये है, बहुरि एकटठे किये अपात्रनिके सहस्त्रनि करि भी संसार-समुद्रतें न तारिये है, ऐसा जानना ॥६५॥
अपात्रदानदोषेभ्यो विभ्यता पुण्यशालिना। विबुद्धय यत्नतः पात्रं देयं दानं विधानतः ॥६६॥
अर्थ-अपात्रके दोषते डरता पुण्यवान जो पुरुष ताकरि यत्नतें पात्रकौं जानिक विधानतें दान देना योग्य है ॥६६॥
अपात्राय धनं दत्ते यो हित्वा पात्रमुत्तमम् । साधु विहाय चौराय तदर्पयति सः स्फुटम् ॥६७ । अर्थ-जो पुरुप उत्तम पात्रकौं छोडिकै अपात्रके अथि धन देय है सो प्रगट साधुकौं छोडिकै चौरके अथि ता धनकौं देय है, ऐसा जानना ॥१७॥
अपात्रमिव य: पात्रं विवृद्धिरव गोकते । चितामणिमसौं मन्ये मन्यते लोष्ठसन्निभम् ॥८॥
अर्थ जो निर्बुद्धि पात्रकौं अपालकी ज्यों अवत्रोक है सो यहु चिंतामणी रत्नकौं लोह समान मात्रै है, ऐसा मैं मानू हूं ॥६॥