Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार
प्रीति सहित तिष्ठे हैं तहां वैरभाव कैसे कहिए, अपितु नाहीं कहिए ऐसा
जानना ॥ ८३ ॥
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कुपात्रदानतो याति कुत्सितां भोगमेदिनीम् । उप्ते कः कुत्सिते क्षेत्रे सुक्षेत्रफलमश्नुते ॥८४॥
अर्थ - कुपात्रके दानतै जीव कुभोगभूमिकौं प्राप्त होय है, इहां दृष्टांत हैं हैं - खोटा क्षेत्रविषं बीज बोये संते सुक्षेत्रके फलकौं कौन प्राप्त होय है, अपितु कोई न होय है ॥ ८४॥
तरद्वीपजाः संति ये नरा म्लेच्छखंडजाः । कुपात्रदानतः सर्वे ते भवंति यथायथम् ॥ ८५ ॥
अर्थ-जे अन्तरद्वीप कहिए लवणसमुद्रविषै वा कालोद समुद्रविषै छयानवें कुभोगभूमिके टापू परे हैं तिनविषै उपजे मनुष्य हैं अर म्लेच्छ खण्डविषै उपजे मनुष्य हैं ते सर्व कुपात्रदानतें यथायोग्य होय हैं ॥ ८५ ॥
वर्य मध्यजघन्यासु तिर्यंच: संति भूमिषु । कुपात्रदानवृक्षोत्थं भजते तेऽखिलाः फलम् ॥ ८६ ॥
अर्थ – उत्तम मध्यम जघन्य भोगभूमिन विषे जे तिर्यंच हैं ते सर्व
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कुपात्र दानरूप वृक्षतें उपज्या जो फल ताहि खाय हैं ॥ ८६ ॥
दासीदास द्विपम्लेच्छसारमेयादयोऽत्र ये ।
कुपात्रदानतो भोगस्तेषां भोगवतां स्फुटम् ॥८७॥
अर्थ - इहां आर्यखण्डमैं जे दासीदास हाथी म्लेच्छ कुत्ता इत्यादि भगवंत जीव हैं तिनकौं जो भोगे है सो प्रगटपने कुपात्र दानतें है, ऐसा जानना ॥८७॥
दृश्यं ते नीचजातीनां ये भोगा भोगिनामिह ।
सर्वे कुपात्रदानेन ते दीयं ते महोदयाः ॥८८॥