Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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दशम परिच्छेद
[ २७१
अर्थ -- इहां आर्यखण्डविषें नीच जातिके भोगी जीवनिकेजे भोग महा उदयरूप देखिए है ते सर्व कुपात्रदानकरि दीजिए हैं ॥ ८८ ॥ अपात्राय धनं दत्तं व्यर्थं संपद्यतेऽखिलम् । ज्वलिते पावके क्षिप्तं बीजं कुत्रांकुरीयति ॥ ८६ ॥
अर्थ - अपात्र अर्थि दिया जो धन है सो वृथा होय है । इहां दृष्टांत कहैं हैं-जलती अग्निमैं क्षेप्या बीज है सो कहां अंकुर सहित होय है, अपितु नाहीं होय है ॥ ८६ ॥
पात्रदानतः किंचिन्न प लं पापतः परम् ।
लभ्यते हि फलं खेदो वालुकापं जपीडने ॥६०॥
अर्थ - अपात्र दानवें फल पापतें दूसरा किछू नाहीं होय है । जातें वालू रेतके समूहके पेलने मैं केवल खेद ही होय, सो ही फल है ॥६०॥
विश्राणितमपात्राय विधरोऽनर्थमूजितम् ।
अपथ्यं भोजनं दत्ते व्याधिं किं न दुरुत्तरम् ॥ ६१ ॥
अर्थ-- अपात्रके अर्थि दिया दान है सो बड़े अनर्थकौं कर है जैसें अपथ्य भोजन है सो दूर है उतरन जाका ऐसे रोगकौं कहा न देय है, देय ही है ॥ ६१ ॥
संस्कृत्य सुन्दरं भोज्यं येनापात्राय दीयते ।
उत्पाद्य प्रबलं धान्यं दह्यते तेन दुधिया । ६२॥
अर्थ- सुन्दर भोजन बनायक जिस पुरुष करि अपात्र के अर्थ दीजिए
है ता दुर्बुद्धी करि पुष्टिकारी धान्य उपजायकें जलाइये है ॥६२॥
शीघ्र पात्रेण संसारादेकेनापि गरीयसा । तायंते बहवो लोकाः पोतेनेव पयोनिधेः ॥९३॥
अर्थ - जैसे जहाजकरि समुद्रतें तारिये तैसें एक ही गरिष्ठ पात्र करि घने लोक संसारतें तारिये हैं ||३|| .