Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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एकादश परिच्छेद
[२६५
पात्रेभ्यो यः प्रकृष्टेभ्यो मिथ्याष्टिः प्रयच्छति । स याति भोगभूमीषु प्रकृष्टासु महोदयः ॥६२॥
अर्थ-जो मिथ्यादृष्टि: उत्कृष्ट पात्रनिके अर्थ दान देय है सो महान् है उदय जाका ऐसा उत्कृष्ट भोगभूमिकौं जाय है ॥६२॥
क्रोशत्रय वपुस्तत्र त्रिपल्योपमजीवितः । चिताकल्पितसान्निध्यं स भोगसुखमश्नुते ।।६३।।
अर्थ--तहां उत्कृष्ट भोगभूमिविर्षे तीन कोशको शरीर अर तीन पल्यकी आयु जाकी सो चिंताकरि कल्प्या ही निकट प्राप्त भया ऐसा भोगनिका सुख भोगै है ॥६३॥
सदा मननुकूलाभिः सेव्यमाना दिवाऽनिशम् । नारीभिर्न गतं कालं जानते भोगभूभुव : ॥६४॥
अर्थ- मनके अनुकूल जे स्त्री तिनकरि सदा सेये भये ते भोगभूमिया गये कालकौं न जाने हैं॥६४॥
मध्यमानां स पात्राणां दानतो याति मध्यमाम । कारणस्यानुरूपं हि कार्यं जगति जायते ॥६५॥
अर्थ- सो दाता मध्यम पात्रनिके दानतें मध्यम भोगभूमिकौं प्राप्त होय है, जातें लोकविर्षे जैसा कारण होय तैसा ही कार्य निपजै है ॥६५॥
द्विकोशोच्छ्यदेहोऽसौ द्विपल्यायुनिरामयः । स तत्रास्ते महावासः कांताक्षांभोजषट्पदः ॥६६॥ .
अर्थ-सो यहु मध्यम भोगभूमिया दोय कोश ऊँचा है दह जाका, अर दोय पल्य आयु, रोगरहित, बड़ा है आवास कहिये स्थान जाका, अर स्त्रीके नेत्रकमलनिकौं भ्रमर समान सो तहां तिष्ठ है ॥६६॥