Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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एकादश परिच्छेद
[ २६३
अर्थ – वस्त्रदानकरि कोमल अर महामोल अर सघन ऐसे हजारों वस्त्र पाइए है ।
भावार्थ - आर्जिका श्रावक, श्राविका इत्यादिकनिकौं वस्त्रदान करें ताका फल इहां कहा है ॥५२ ||
ददति जनतानन्दं चन्द्रकांतिरिवामला ।
जायते पानदानेन वाणी तापपनोदिनी ॥ ५३ ॥
अर्थ - पान कहिये पीवने योग्य वस्तु ताके दान करि चन्द्रकांति मणि समान निर्मल लोकनिक आनन्द देनेवाली तापकी नाश करनेवाली ऐसी वाणी होय है ॥ ५३॥
ददानः प्रासुकं द्रव्यं रत्नत्रितयव हकम् । कांक्षितं सकलं द्रव्यं लभते परदुर्लभम् ॥५४॥ अर्थ – रत्नत्रयका बढ़ावनेवाला ऐसा जो प्रायुक्त द्रव्य है ताहि देता
पुरुष औरनिकौं दुर्लभ ऐसा बांछित सकल पदार्थ पावै है || ५४ ॥ विश्राणयति यो दानं सेवमानस्तपस्विनः । सेव्यते भुवनाधीशः स सदा सुखकांक्षिभिः ॥ ५५ ॥ अर्थ - जो पुरुष तपस्वनिकों सेवता संता दान देय हैं सो पुरुष सुखके वांछक जे इन्द्रादिक तिनकरि सदा सेइए है ॥ ५५ ॥
यः प्रशंसापरी नत्वा दानं यच्छति योगिनाम् । प्रशस्य स सदा सद्भिर्जिनेन्द्र इव नम्यते ॥ ५६ ॥
अर्थ - जो पुरुष मुनीनकौं प्रशंसा मैं तत्पर भया दान देय है सो पुरुष सदा प्रशंसा योग्य होय है, अर सत्पुरुष जैसें तीर्थंकर देवकों नमैं तैसें ताहि मैं हैं ॥५६॥
दत्त शुभ षयित्वा यो दानं संयमशालिनाम् । शुभ ष्यते बुधैरेष भक्त्या गुरुशिवानिशम् ॥५७॥