Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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एकादश परिच्छेद
[२६१
अर्थ-जाकरि संसार छेदिए है, अर जाकरि मोक्ष दीजिए है, अर जाकरि मोह छड़ाइए है, अर जाकरि विवेक उपजायिए है ॥४२॥ अर जाकरि क्रोधादिक कषाय नाश कीजिए है, अर जाकरि मन शान्त कीजिए है, अर जाकरि अकार्य छुड़ाइए है, अर जाकरि कृत्यमें प्रवर्ताइए है ॥४३॥ अर जाकरि पदार्थनिका सांचा स्वरूप निषेधिये है, अर जाकरि पदार्थनिका अन्यथा स्वरूप निषेधिये है, अर जाकरि संयमभाव करिए है, अर जाकरि सम्यक्त पोषिए है ॥४४॥ ऐसा जो शास्त्र प्राणनिकौं जाकरि मुक्तिके अथि दीजिए है तासमान तीनलोक विष धन्य पुरुष कौन है, अपितु कोई नाहीं ॥४५॥
मुक्तिः प्रदीयते येन शास्त्रदानेन पावनी । लक्ष्मी सांसारिकी तस्य प्रददानस्य कः श्रमः ॥४६॥
अर्थ-जिस शास्त्रदान करि पवित्र मुक्ति दीजिए हे ताके संसारकी लक्ष्मी देतेके कहा श्रम है।
भावार्थ-जाकरि मुक्ति पाइए ताकरि इन्द्रादिक पद दुर्लभ नाहीं ॥४६॥
लभ्यते केवलज्ञानं यतो विश्वावभासकम् ।
अपरज्ञानलाभेषु कीशी तस्य वर्णना ॥४७॥ अर्थ-जा शास्त्रज्ञानते विश्वका प्रकाशक केवलज्ञान पाइए है तो और मतिज्ञान आदिके पावने विर्षे ताकी कथनी कैसी, और ज्ञान पावना तौ सहज ही है ॥४७॥
मामरश्रियं भुक्त्वा भुवनोत्तमपूजिताम् । ज्ञानदानप्रसादेन जीवो गच्छति निर्वृतिम् ॥४॥