Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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२५८]
श्री अमितगति श्रावकाचार -
अर्थ- इहां बहुत कहने करि कहा है, आहारदानका फल सर्वज्ञ बिना और दूजा कहनेकौं समर्थ नाहीं ॥३१।।
ऐसें आहारदानका फल वर्णन किया, आगें औषधिदानका वर्णन करें हैं
रक्ष्यते वतिनां येन शरीरं धर्मसाधनम् ।
पार्यते न फलं वक्तं तस्य भैषज्यदायिनः ॥३२॥
अर्थ-जिस औषधदान करनेवाले करि धर्मका साधन जो वतीनका शरीर ताकी रक्षा कीजिये है तिस औषधदानीके फल कहनेकौं समर्थ न हूजिये है ॥३२॥
येनौषधप्रदस्येह वचनैः कथ्यते फलम् ।
चुलुकैर्मीयते तेन पयो नूनं पयोनिधेः ॥३३॥ प्रर्थ-आचार्य क्हैं हैं मैं ऐसा मानू हूँ कि जिस करि इस लोकमैं औषध देनेवालेका फल वचन करि कहिये है, ताकरि समुद्रका जल चलूनि करि मापिये है ॥३३॥
वातपित्तकपोत्थानै रोगैरेष न पीड्यते । दावैरिव जलस्थायी भेषजं येन दीयते ॥३४॥
अर्थ-जा पुरुष करि औषध दीजिए है सो पुरुष जैसें दावानल करि जल विर्षे तिष्ठ्या पुरुष न पीड़िए तैसें वात पित्त कफ करि उठे रोगनि करि न पीड़िए है ॥३४॥
रोगनिपीडितो योगी न शक्तो व्रतरक्षरणे। नास्वस्थैः शक्यते कत्त, स्वस्थकर्म कदाचन ॥३५॥