Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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नवम परिच्छेद
[२१७
अर्थ-जिस विर्षे संसार के कारण नाना प्रकार आरम्भ होय है तिस घरके देनेवालेके फल केवल घोर पाप होय है ॥५२॥
पीडा संपद्यते यस्या, वियोगे गोनिकायतः । पया जीवा निहन्यंते, पुच्छशृङ्गखुरादिभिः ॥५३॥ यस्यां च दुह्यमानायां, तर्णकः पीड्यतेतराम् । तां गां वितरता श्रेयो, लभ्यते न मनागपि ॥५४॥
अर्थ-जिसकौं गौनके समूहत वियोग होने की पीडा उपज है अर जाकरि पूछ सींग खर आदिकनि करि जीव हनिए हैं अर जाका दुहे संतें वच्छा अतिशय करि पीडिए है तिस गौके देनेवाले पुरुष करि किछ भी पुण्य न पाइए है।
भावार्थ--गौ देने मैं पुण्यका अंश भी नाही, पाप ही होय हे ॥५३-५४॥
या सर्वतीर्थदेवानों, निवासीमूतविग्रहा। दीयते गृह्यते सा गौः, कथं दुर्गतिगामिभिः ॥५५॥
अर्थ-जो गौ सर्व अर देवनिके बसनेका स्थान है शरीर जाका सो गौ दुर्गतिके जानेवालेन करि कैसे दीजिए है और कैसे ग्रहण करिय है।
भावार्थ-मिथ्यादृष्टि गौके शरीर में सर्व तीर्थ अर देव बसते मानें हैं, ऐसी गौ कौं पापी कैसे देय हैं अर कैसे लेय है; ऐंसी तर्क करी है ॥५५॥
तिलधेनु घृतधेनु, कांचनधेनुं च रुक्मधेनुं च । परिकल्प्य भक्षयंत, श्चांडालेभ्यस्तरां पापाः ॥५६॥
अर्थ-तिलनिकी गौ घृतकी गों सुवर्णकी गौ रूपेकी गौ बनाथ बनाय करि जे भखें हैं ते चांडालतें भी अधिक पापी हैं।
भावार्थ-चांडाल गौ तो न खाय है अर इन मिथ्यादृष्टिनमैं तिलादिककी बनाय करी गौ भी खाय लीनी तातें ते चांडालतें भी सिवाय पापी हैं, ऐसा जानना ॥५६॥