Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार
भोगाः संपद्यमानाः सुरमनुजभावाश्चितितप्राप्त सौख्या याच्यंते लब्धुकामैः कथमपविपदं धर्मतो मुक्तिकांताम् । सस्यं स्वीकत्तकामाः क्षुदुरुतरतमस्कांडविच्छेददक्षं । स्वीकत्त" कि पलालं फलममलधियः कुर्वते कर्षणं हि ॥७३॥
अर्थ - धर्मतें मुक्ति स्त्रीकौं प्राप्त होनेकी है इच्छा जिनके ऐसे पुरुषनि करि वांछित प्राप्त किये हैं सुख जिनमें ऐसे प्राप्त भए जे देव मनुष्य जनित भोग ते विपदा रूप कोई प्रकार याचिए है अपितु नाहीं याचिए है; जातें धान्यकौं अंगीकार करनेके वांछक जे निर्मल बुद्धि पुरुष है ते कहां ख्यार फलकौं अंगीकार करनेकौं खेती करें हैं, अपितु नाहीं करें: हैं, कैसा है धान्य पीड़ा रूप जो बड़ा अन्धकारका समूह ताके छेदनें विषे प्रवीण है ।
भावार्थ - जैसें खेतीमैं मुख्य फल तो धान्य है अर पियार आदि स्वयमेव उपजै है तैसें धर्मका फल तौ मोक्ष है । इन्द्रादिक पद तौ विना चाहे शुभोपभोगतें स्वयमेव उपजै है, तातें इन्द्रादिक पदके योग्य धर्मका वांछना योग्य नाहीं ॥७३॥
त्यक्ता भोगाभिलाषं भवमरणजरारण्यनिम्मूं लनार्थं दत्ते दानं मुदायो नयविनयपरः संयतेभ्यो यतिभ्यः । भुक्ता भोगानरोगानमरवरवधूलोचनांभोजभानुनित्यां निर्वाणलक्ष्मोममितगतियतिप्रार्थनीयां स याति ॥ ७४ ॥
अर्थ - नीति अर विनयविषै तत्पर भया जो पुरुष जन्म जरा मरणरूप बनके नाशके अर्थ भोगनिकी वांछाक त्यागिकै हर्ष सहित संयमी मुनीश्वरनिके अर्थ दान देय है सो देवांगनाके नयनकमलकौं सूर्य समान देव होय रोग रहित भोगनिकौं भोगि मोक्ष लक्ष्मीकौं प्राप्त होय है, कैसी है मोक्ष लक्ष्मी अविनाशी है अर अप्रमाण है ज्ञान जिनका ऐसे यतीन करि वांछने योग्य है ॥७४॥