Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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दशम परिच्छेद ।
अर्थ – दमे है इन्द्रिय रूप घोड़े जिनने ऐसे जे पुरुष औरनि करि अशक्य जो धर्म ताहि विषयार्थी भए सन्ते आचरें है ते बड़े बड़े पाषाणकों गले विषे धारकें नाहीं लेने योग्य है पार जाका ऐसा जो जल ता प्रति प्रवेश कर है ।। ६६ ॥
दिने दिने ये
परिचर्यमाणा, परिपीडयन्ते ।
विवर्द्धमानाः
ते कस्य रोगा इव सन्ति भोगा, विनिंदनीया
विदुषोऽर्थनीयाः ॥७०॥
[ २४६
अर्थ - जे भोग दिन दिनविषें परिचार किये भए बर्द्धमान भए सन्ते जैसें रोग पीड़ा उपजावै तैसें पीड़ा उपजावें हैं ते निंदने योग्य भाग कौन पंडित जनकौं वांछने योग्य होय है, अपितु नाहीं होय है ॥७०॥ प्रयच्छन्ति सौख्यं सुराधीश्वरेभ्यो,
न ये जातु भोगाः कथं ते परेभ्यः ।
निशुं मन्ति ये मत्तमत्र द्विपेन्द्र, न कंठीरवास्ते कुरंगं त्यजन्ति ॥ ७१ ॥
अर्थ - जे भोग सुरनिके नायक जो इन्द्र तिनके अर्थ ही कदाचित् सुख न देय हैं ते औरनके अर्थि सुख कैसें देय । इहां दृष्टांत कहै हैजे सिंह इहां लोकमैं मतवारे गजेन्द्रकौं मारें हैं ते हिरणकौं नाहीं छोड़े हैं ॥ ७१ ॥
याचनीयाविदुषेति दोषं,
भोगाः ।
न
विज्ञाय रोगा इव जातु प्राणहारित्वमवेक्षमाणो, जिजीविषुः खादति कालकूटम् ॥७२॥
किं
अर्थ- - या प्रकार दोषकौं जानिकें पंडितजन करि रोग समान जें भोग ते कदाचित् वांछने योग्य नाहीं । इहां दृष्टांत कहैं हैं - प्राणहारीपणेकौं देखता जीवनेका बांछक जो पुरुष है सो कहा कालकूटकौं खाय है, अपि तु नाहीं खाय है ||७२ ||