Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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एकादश परिच्छेद
दोहा ।
भोग चाह तजि साधुकौं, देत दान जो जीव. सुरसुख सब लहि अमितगति, होय मोक्षतिय पीव ॥
इत्युपासकाचारे दशमः परिच्छेदः
इस प्रकार अमितगति आचार्यविरचित श्रावकाचारविषै दशवां परिच्छेद पूर्ण भया ।
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एकादश परिच्छेदः ।
फलं नाभयदानस्य, वक्तु केनाऽपि पार्यते । trissarपं मुखे जिह्वा, व्याप्रियन्ते सहस्रशः ॥ १ ॥
अर्थ – अभयदानके फलकौं कहनेकौं कोऊ करि भी समर्थ हूजिए है, अपितु नाहीं हूजिए है; जिसके कहनेकौं कल्पकाल पर्यंत हजारौं जीभ मुखविषे व्यापार कीजिए है तौ भी अभयदान के फल कहनेकौं कोऊ करि भी समर्थ न हूजिए है ॥१॥
धर्मार्थकाममोक्षाणां जीवितं मूलमिष्यते ।
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तद्रक्षता न किं दत्तं हरता तन्न कि हृतम् ॥२॥
अर्थ — धर्म अर्थ काम मोक्ष इन
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च्यारों ही पुरुषार्थ निकामूल जीवना कहिए हैं तातें तिस जीवनेकौं रक्षा करता जो पुरुष ताकरि कहा नदिया अरता जीवनेकौं रक्षा हरता जो पुरुष ताकरि कहा न नाश किया,
सर्व ही नाश किया ॥२॥
गोवालब्राह्मणस्त्रीतः पुण्यभागी यदीष्यते ।
सर्वप्राणिगणत्रायी, नितरां न तदा कथम् ॥३॥