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________________ एकादश परिच्छेद दोहा । भोग चाह तजि साधुकौं, देत दान जो जीव. सुरसुख सब लहि अमितगति, होय मोक्षतिय पीव ॥ इत्युपासकाचारे दशमः परिच्छेदः इस प्रकार अमितगति आचार्यविरचित श्रावकाचारविषै दशवां परिच्छेद पूर्ण भया । [२५१ एकादश परिच्छेदः । फलं नाभयदानस्य, वक्तु केनाऽपि पार्यते । trissarपं मुखे जिह्वा, व्याप्रियन्ते सहस्रशः ॥ १ ॥ अर्थ – अभयदानके फलकौं कहनेकौं कोऊ करि भी समर्थ हूजिए है, अपितु नाहीं हूजिए है; जिसके कहनेकौं कल्पकाल पर्यंत हजारौं जीभ मुखविषे व्यापार कीजिए है तौ भी अभयदान के फल कहनेकौं कोऊ करि भी समर्थ न हूजिए है ॥१॥ धर्मार्थकाममोक्षाणां जीवितं मूलमिष्यते । , तद्रक्षता न किं दत्तं हरता तन्न कि हृतम् ॥२॥ अर्थ — धर्म अर्थ काम मोक्ष इन - च्यारों ही पुरुषार्थ निकामूल जीवना कहिए हैं तातें तिस जीवनेकौं रक्षा करता जो पुरुष ताकरि कहा नदिया अरता जीवनेकौं रक्षा हरता जो पुरुष ताकरि कहा न नाश किया, सर्व ही नाश किया ॥२॥ गोवालब्राह्मणस्त्रीतः पुण्यभागी यदीष्यते । सर्वप्राणिगणत्रायी, नितरां न तदा कथम् ॥३॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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