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________________ २५२ ] श्री अमितगति श्रावकाचार | अर्थ - जो गौ बालक ब्राह्मण स्त्री इनकी रक्षातें पुण्यवान जीव मानिए है तो समस्त प्राणीनिके समूहका रक्षा करनेवाला पुरुष है सो अधिक पुण्यवान कैसें नाहीं ॥३॥ त्रायमाणाः कमेकदा जीवं प्रपूज्यत । न तदा सर्वदा सर्वं त्रायमाणः कथं बुधैः ॥४॥ अर्थ - जो एक काल एक जीवकौं रक्षा करता सन्ता पुरुष है सो " पूजिए है तौ सदा काल सर्व जीवक रक्षा करता सन्ता पुरुष है सो पंडित नि करि कैसें नाहीं पूजिए है, पूजिए ही है ॥४॥ चामीकरमयी मुर्वी ददानः पर्वतैः सह । एकजीवाभयं नूनं ददानस्य समः कुतः ॥५॥ अर्ण आचार्य तर्क करें हैं- पर्वतनि सहित सुवर्णमयी पृथ्वीकों देता पुरुष है सो एक जीवकी रक्षा करता जो पुरुष ताके समान कहां होय, अपितु नाहीं होय ||५|| गुणानां दुखा पानामचितानां महात्मभिः । दयालुर्जीयते स्थानं मणीनामिव सागरः ॥ ६ ॥ अर्थ – बड़े पुरुषनि करि पूजित ऐसे जे दुर्लभ गुण तिनका दयालु स्थानक होय है, जैसें रत्ननिका स्थान समुद्र होय है तैसें ॥ ६ ॥ संयमा नियमाः सर्वे दयालोः सन्ति देहिनः । जायमाना न दृश्यन्ते भूरुहा धरणीमृते ॥७॥ अर्थ- दयावान जीवकें संयम नियम सर्व होय है, जातें पृथ्वी बिना वृक्ष हैं ते उपजे न देखे ||७|| कारणं सर्ववैराणां प्राणिनां विनिपातनम् । तत्सदा त्यजतस्त्रेधा कुत्तो वैरं प्रवर्त्तते ॥ ८ ॥
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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