Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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- नवम परिच्छेद
[२१६
अर्थ--जे निर्बुद्धि पुरुष मरे जीवकी तृप्तिके अर्थ बहुत प्रकारदान देय है ते निश्चय करि अग्नि करि भस्मरूप भए वृक्षकों पत्रसहित करनेकौं सींचें है।
भावार्थ -जैसे भस्म भए वृक्षकौं सींचे फेर हरा न होय सींचना निष्फल है तैसें मरे पितरनकी तृप्ति के अर्थ दान देना वृथा है, मिथ्यात्व पुष्ट होने” पाप ही है ॥६१॥
विप्रगणे सति भुक्त, तृप्तिः संपद्यते यदपि नृणाम् । नान्येन घृते पीते, भवति तदान्यः कथं पुष्टः ॥६२॥
अर्थ-ब्राह्मणके समूहकौं भोजन कराये सन्ते जो पितरके तृप्तिता होय तो आर करि घी पिये सन्नैं और पुष्ट कैस न होय ॥६२॥
दाने दत्ते पुत्रर्मुच्यते, पापतोऽत्र यदि पितरः । विहिते तदा चरित्रे, परेण मुक्ति परो याति ॥६३॥
अर्थ--पुत्रनि करि दान दिये सन्त जो पितर पापतें छूटें हैं तो और करि चारित्र करे संत और मुक्तिकौं प्राप्त होय ॥६३॥ गंगागतेऽस्थिजाले भवति, सुखी यदि मृतोऽत्र चिरकालं । भस्मीकृतस्तदांभः सिक्तः, पल्लवयते वृक्षः ॥६४॥
अर्थ-हाड़नके समूहकौं गंगानदी विर्षे गये सन्तै जौ यहु प्राणी बहुत सुखी होय है तो भस्म कर्या वृक्ष सींच्या भया हा होय है । ६४॥
उपयाचंते देवान्नष्टधियो, ये धनानि दवमानाः। ते सर्वस्वं दत्त्वा नूनं, कोणंति दुःखानि ॥६॥
अर्ग-जे नष्ट बुद्धि दान देते सन्ते देवनि प्रति धननिकौं याचें हैं ते निश्चयकरि सर्व अपना धन देकरि दुःखनिकां खरीदें हैं ॥६५॥
पूर्णेकाले देवैर्न रक्ष्यते, कोऽपि नूनमुपयातैः । चित्रमिदं प्रतिबिंवरचेतन, रक्ष्यते तेषाम् ॥६६॥ .