Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार
वितीर्य यो दानमसंयतात्मने, जनः फलं कांक्षति पुण्यलक्षणम् । वितीर्य वीजं ज्वलिते स पावके,
समीहते सस्यमपास्तदूषणम ॥५४॥ अर्थ-जो मनुष्य असंयत मनुष्यके अर्थ दान देकरि पुण्य है लक्षण जाका ऐसे फलकौं चाहै है सो जलती अग्नि विषं बीजकौं बोय करि दूषण रहित धान्तकौं वांछ है।
भावार्थ-विषय कषायनि सहित मदोन्मत्त मिथ्यादृष्टीनकों दान देकै पूण्य चाहै सो नाहीं होय है । बहुरि इहां असंयमीकौं दान निषेध्या सो दुःखित जीवनिकौं करुणा दान नाहीं निषेध्या है, ऐसा जानना ॥५४॥
विमुच्य यः पात्रमवद्यविच्छिदे, कुधीरपात्राय ददाति भोजनम् । स कर्षित क्षेत्रमपोह्य सुन्दरं,
फ्लाय बीजं क्षिपते बतोपले ॥५५॥ अर्थ-जो पुरुष पापके नाशके अर्थ पात्रकौं छोड़कै अपात्रकौं भोजन देय है तहां आचार्य कहैं हैं बड़े खेदकी बात है, जो सुन्दर जोते भये खेतकौं छोड़करि पत्थर विषं बीजकौं खेपे है ।।५५।।
यथा रजोधारिणि पुष्टिकारणं । विनश्यति क्षीरम लावुनि स्थितम्। प्ररूढमिथ्यात्वमलाय देहिने,
तथा प्रदत्तं द्रविणं विनश्यति ॥५६॥ अर्थ-जैसे पुष्टिकारी जो दूध सो धूरकी धारनेवाली जो तू बडी ताविर्षे धरया भया नाशकौं प्राप्त होय है तैसें फैल रह्या है मिथ्यात्वरूप मल जाकै ऐसे प्राणीकौं दिया भया द्रव्य है सो नाशकौं प्राप्त होय है।।
__ भावार्थ-जैसे धूल भरी कटुक लबडी विष भरया दुध नाशकौं प्राप्त होय अर कटुक परिणमैं तैसें मिथ्यादृष्टीकौं दिया धन नाशकौं प्राप्त होय है अर पापबन्ध करै है, ऐसा जानना ॥५६॥ ।