Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार ।
धर्मकौं धरि है, कैसा है धर्म संसार बनके छेदनको कुठार समान है, अर बांछित फल देनेकौं कल्पवृक्ष समान है ||२५||
लोकाधारनिवृत्तः कर्म महाशत्रुमर्दनोद्य क्तः । यो जातरूपधारी संयतपात्रं मतं वर्यम् ॥ २६ ॥
श्रर्थ - जो मुनि लौकिक आचारतें निवृत्त है अर कर्मरूप महाशत्रुके नाश करने मैं उद्यमी है अर जातरूप कहिए माताके गर्भतै जैसा उपज्या तैसा नग्नरूपका धारी मुनि उत्तम पात्र कह्या है ||२६||
ऐसें उत्तम पात्रका स्वरूप कह्या, आगे मध्यम पात्रका स्वरूप कहैं हैं
राकाशशांकोज्ज्वलदृष्टिभूषः, प्रवर्द्ध मानव्रतशी ललक्ष्मीः । सामायिका रोपितचित्तवृत्ति, निरन्तरोपोषितशोषितांगः ||२७|| सचेतनाहारनिवृत्तचित्तो, वैरंगिको मुक्तदिनव्यवायः । निरस्त शश्वद्वनितोपभोगो निराकृतासंयमकारि कर्मा ॥ २८ ॥ निवारिताशेषपरिग्रहेच्छः, सावद्यकर्मानुमतेरकर्त्ता । प्रौद्द शिकाहारनिवृत्तबुद्धि, दुरंत संसारनिपातभीतः ॥ २९ ॥ उपासकाचारविधिप्रवीणो, मंदीकृताशेषकषायवृत्तिः । उत्तिष्ठते यो जननव्यपाये, तं मध्यमं पात्रमुदाहरन्ति ॥३०॥
अर्थ - पूर्णमासीके चन्द्रमा समान निर्मल जो सम्यग्दर्शन सोही है आभूषण जाकै, बहुरि वर्द्धमान हे पंच अगुव्रत अर सात शील इनकी लक्ष्मी जाकै, बहुरि सामायिकविषै आरोपित करी है चित्तकी पृत्ति तानें अर सदा प्रोषधोपवास करि सोख्या है अंग जानें ||२७|| सचित्त आहारतें निवृत्त है चित्त जाका अर विमुक्तरूप है, तथा छोड़या है दिनविषै मैंथ न जानें, अर दूर किया है निरन्तर स्त्रीका उपभोग जानें अर दूर किये हैं असंयम के करनेवाले कार्य जानें ॥ १८॥ बहुरि विनाशी है समस्त परिग्रहकी इच्छा जानें, बहुरि पाप सहित कार्यमैं अनुमोदननाकौं नाहीं करें है । बहुरि आपके उद्देश्यकरि किया जो आहार ता विषै निवृत्त है बुद्धि जाकी ऐसा जो संसार ताके