Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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दशम परिच्छेद
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जानें ॥४३॥ बहुरि नाश किया है कामरूप वैरी जानें ऐसे मुनिकौं मन, वचन, कायकी विशुद्धिता भले प्रकार आपके अर्थ किया जो चार प्रकार प्रासुक आहार ताहिं देय है, कैसा है सो पुरुष नाही हरणे योग्य है निश्चय जाका।
भावार्थ - दृढ़ है श्रद्धान जाका ऐस है ॥४४॥ :: अनेन दत्तं विधिना तपस्विनां,
महाफलं स्तोकमपि प्रजायते । बसुन्धरायां वटपादपस्य किं,
न बीजमुप्तं परमेति विस्तरम ॥४५॥ अर्थ-इस विधि सहित तपस्वीनकौं थोड़ा दिया जो दान सा महाफल उपजावै है । जैसे पृथ्वीविर्षे बोया जो वटवृक्षका बीज सों कहा उत्कृष्ट विस्तारकौं प्राप्त न होय है, होय ही है ॥४५॥
निवेशितं वीजमिलातलेऽनघे, विना विधानं न फलावहं यथा । तथा न पात्राय वितीर्णमंजसा,
ददाति दानं विधिना विना फलम् ॥४६॥ अर्थ-जैसे निर्दोष पृथ्वीतल वि. बोया भया बीज है सो विधान जो जतन आदि क्रिया ता बिना फलदाता न होय है तैसें पात्रके अर्थ भले प्रकार दिया भया दान है सो विधि जो पडगाहन आदि ता विना फलकौं न देय है ॥४६॥
सदाऽतिथिभ्यो विनयं वितन्वता, निजं प्रदेयं प्रियजल्पिना धनम् । प्रजायते कर्कशभाषिणः स्फुटं,
धनं वितीणं गुरुवेरकारणम् ॥४७॥ अर्ग-विनयको विस्तारता अर मिष्ट वचन बोलता जो पुरुष ताकरि पात्रनिके अर्थ अपना धन कहिये यथायोग्य अहारादि वस्तु देना