Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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नवम परिच्छेद
[ २२३
प्रात्मीकरोति यो दानं, जीवमईन सम्भवम् ।. .. आकांक्षन्नात्मनः सौख्यं, पात्रता तस्य कीदृशी ॥७॥
अर्थ-जो आपकै सुख वांछता संता जीवनिके घाततें उपज्या जो दान ताहि ग्रहण करै हैं, ताकै पात्रता कैसी।
भावार्थ-अयोग्य दान लेय सो पाप काहेका, वह तो अपाप ही है ॥७॥
न सुवर्णादिक देयं न, दाता तस्य दायकः । न च पात्रं ग्रहीतास्य, जिनानामीति शासनम् ॥७॥
अर्थ-सुवर्णादिक तो देने योग्य वस्तु नाहीं अर तिस सुवर्णादिकका देनेवाला दाता नाहीं अर इस दानका ग्रहण करनेवाला पात्र नाही, या प्रकार जिनदेवनिका शासन कहिए आज्ञा है ।।७६ ।।
पात्रं विनाशितं तेन, तेनाधर्मः प्रवर्तितः । येन स्वर्णादिकं दत्त, सर्वानर्थविधायकम् ॥१०॥
अर्थ- तिमनैं पात्रका तौ विनाश किया अर तिसनें अधर्म प्रवर्तीया जाकरि सर्व अनर्थनिका करनेवाला सुवर्णादिक दिया तामैं ।
भावार्थ-- सुवर्णादिकतै हिंसादिक पाप उपजै है तातें लेनेवालेका तो नाश किया अर अधर्म प्रवर्तीया, तातै कुदान देना योग्य नाहीं ॥८०॥
आगें देनेयोग्य वस्तुका वर्णन करै है:रागो निषद्यते येन येन धर्मो विवद्धर्यते । संयमः पोष्यते येन विवेको येन जन्यते ॥१॥ आत्मोपशम्यते येन येनोपक्रियते परः । न येन नाश्यते पात्रं तद्दातव्यं प्रशस्यते ॥२॥
प्रथ-जाकरि राग नाशकौं प्राप्त होय अर जाकरि धर्म वृद्धिकौं प्राप्त होय अर जाकरि संयम पुष्ट होय अर जाकरि विवेक उपजे ॥१॥