Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार
अर्थ – जातें पहले ६ हे जे समस्त दान तिनकरि दान ग्रहण करनेवाले सुख करिए हैं तातें दाता पुण्यका भजनेवाला होय है ऐसा वचन योग्य नाहीं ॥ ७३ ॥ जातै वर्त्तमानमैं तो तिन कुदाननि करि कुपथ्यकी ज्यों सुख पाइए है अर तिनके विपाकविषै अत्यंत दुःख होय है, कैसे है कुपथ्य दुःख कर है पचना जिनका अर लोक्करि निंदित है तैसेही कुदान है ऐसा जानना ||७४ || वर्तमान मैं सुखदायक अर अन्तमें दुःख के बढ़ावनेवाले ऐसे किपाप फल समान जे दिये गये बहुत कुदानादि तिनकरि पुण्य नाही होय है ।
भावार्थ -- कोऊ कहै कि पृथ्वीदानादि लेनेवाला सुखी होय है तातें दाताक पुण्य होय है ताकौं कह्या है कि जैसे कुपथ्य वर्त्तमान मैं तो मीठा लागै परन्तु प्राण ही हरै है अर किपाक्का फल खाते तो मीठा लागै पाछै प्राण हरे है तैसें पृथ्वी आदि दाननिविषै वर्त्त मान मैं सुखसा भा परन्तु आगामी हिंसादिक योगतें नरकादिक मैं लेनेवालेकौं तीव्र दुःख उपजायै है, तातें देनेवाले पुण्य नाहीं पाप ही है ॥ ७५ ॥
प्रचुरोऽपात्रसंघाते मर्दचित्वाऽपि पोषिते ।
पाये संपद्यते धर्नो, नैषा भाषा प्रशस्यते ॥७६॥
अर्थ - जीवनके समूहकों नाशकैं भी पात्रकौं पोखे संते प्रचुर धर्म होय है ऐसी वाणी सराहने योग्य नाहीं ॥ ७६ ॥
ताका दृष्टान्तः-
निहत्य मेकसंबभ यः प्रीणाति भुजंगमम् ।
सोश्नुते यादृशं पुण्यं नूनमन्योऽपि तादृश्यम् । ७७॥
अर्थ - मीडंकानिके समूहकौं हनिकैं जो सर्पकौं पोखै है सो पुरुष जैसा पुण्यकौं ग्रहण करें है तैसा ही पुण्य निश्चयकरि और भी ग्रहण कर है ।
भावार्थ--जैसे अनेक मीडॅकानिकौं हनिकै कोई सर्पकौं पोखै ताकै पाप होय तैसें और जीवनकौं मारकं ब्राह्मणादिकनिके पोषनेते पाप होय है, पुण्य नाहीं ; ऐसा जानना ॥७७॥