Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
नवम परिच्छेद
[२१५
आगें दान देना योग्य वस्तुकौं सामान्यपनै कहै है :जीवा येन निहन्यते, पात्रं विनश्यते । रागो विवर्द्ध ते येन, यस्मात संपद्यते भयम् ॥४४॥ प्रारम्भा येन जन्यन्ते, दुखितं यच्च जायते । धर्मकामैन तद्देयं, कदाचन निगद्यते ॥४५॥
अर्थ-जा करि जीव हनिये अर जाकरि पात्रजनका नाश कीजिए अर जा करि राग बढ़ाईए अर जातें भय उपजै ॥४४॥ अर जाकरि आरम्भ उपजै अर जातें दुखी होय सो वस्तु धर्मके वांछक पुरुषनि करि देने योग्य, कदाच नाहीं कहिये है ॥४५॥
आगें तिन न देने योग्य वस्तुनिके विशेष कहै हैं :-- हलविदार्य माणानां, गभिण्यामिव योषिति । नियन्ते प्राणिनो यस्यां, सा भूः किं ददते फलम् ॥४६॥
अर्थ-हलनि करि विदारी भई गर्भिणी स्त्री विष जैसे जाविष प्राणी मरै है सो पृथ्वी कहा फल देय अपितु नाहीं देय हैं।
भावार्थ-जैसैं गर्भिणी स्त्रीके गर्भमैं बालक है तैसे पृथ्वीके गर्भमैं अनेक जीव बसै है ता पृथ्वीकौं हलनि करि अनेक जीवनिकी हिंसा होय तातें भूमिदानमैं पुण्य नाही, पाप ही है। ऐसा जानना ॥४६॥
सर्वत्र भ्रमता येन, कृतांतेनेव देहिनः । विपाद्य ते न तल्लोहं वत्तं कस्यापि शांतये ॥४७॥
अर्थ-जा करि सर्व जायगा भ्रमण करने करि यमकी ज्यौं जीव धिनाशिये हैं सो लोह दिया भया कोईके भी शांतिक अर्थ नाहीं।
भावार्थ-लोह जहां ही जाय तहां ही हिंसा होय तातै लोहदान पुण्यके अर्थ नाहीं पापहीके अर्थ है ॥४७॥