Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार -
यदर्थं हिंस्यते पात्रं, यत्सदा भयकारणम् । संयमा येन हीयंते, दुष्कालेनेव मानवाः ॥४८॥ राग द्वषमदक्रोध, लोभमौहमनोमवाः । जन्यंते तापका येन, काष्ठेनेव हुताशनाः ॥४६॥ तो नाष्टापदं यस्य, दीयते हितकाम्यया । स तस्याष्टापदं मन्ये, दत्ते जीवितशांतये ॥५०॥
अर्थ-जिसके अर्थ पात्रकी हिंसा की जिए अर जौ सदा भयका कारण अर दुर्भिक्ष करि मनुष्य जैसे हीन होय तैसें जा करि संयम हीन होय ॥२८॥ अर जैसे काष्ठ करि आग्नि उपजै है तैसें संतापकारी राग-द्वेष, मद, क्रोध, लोभ, मोह, काम जा करि उपजै हैं ॥४६॥ सो अष्टापद कहिये सुवर्ण जा करि जिसकौं हितकी वांछा करि दीजिए सो तिसकी जीवनेकी शांतिके अर्थ अष्टापदनामा क्रूर हिंसक जीव ताने दिया ऐसा मैं मानू हूं।
भावार्थ-जैसे कोऊ जीवनेके अर्थ काहूकौं अष्टापद नाम हिंसक जीवकौं देय तो ताका मरन ही होय है तैसें धर्मके अर्थ मिथ्यादृष्टीनकौं दिया जो सुवर्ण तातै हिंसादिक होनेते परके वा आपके ही पाप होय, ऐसा जानना ॥५०॥
संसजंत्य गिनो येषु, भूरिशस्त्रसकायिकाः । फलं विश्राणने तेषां, तिलानां कल्मषं परम् ॥५१॥
अर्थ-जिन विष घने त्रसकायिक जीव उपजै है तिन तिलनके देने विष फल केवल पाप है।
भावार्थ-तिल देने में त्रसकायिक जीवनिकी हिंसातें केवल पाप ही है पुण्य नाहीं ॥५१॥
प्रारंभा यत्र जायते, चित्राः संसारहेतवः । तत्सम ददतो घोरं, केवलं कलिलं फलम् ॥५२॥