Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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२१० ]
श्री अमितगति श्रावकाचार
गृहं तदुच्यते तुंगं, तायंते यत्र योगिनः । निगद्यते परं प्राज्ञः शारदं घनमंडलम् ॥२
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दान
अर्थ - जिस विषै योगीश्वर तृप्त काधिक दीजिए है सो ऊँचा घर कहिए है अर दान रहित केवल घर है सो पंडित निरि सरदकालके बादलानिका मंडल कहिए है ||२२|| धौतपादांभसा सिक्तं, साधूनां सौधमुच्यते ।
अपरं कर्दमा लिप्तं, मर्त्यचारकबंधनम् ॥ २३॥
अर्थ – साधूनके धोये जे चरण तिनके जलकरि सींच्या जो घर ताहि सौध कहिए है, अर सिवाय दूजाघर है सो कीचकरि लिप्या मनुष्यरूप चरनेवालेका बंधन है ||२३||
स गेही मन्यते भव्यो, यो दत्त दानमंजसा ।
न परो गेहयुक्तोऽपि, पतत्रीव कदाचन ॥२४॥
अर्थ -- जो भले प्रकार दान देय है सो भव्य पंडितनिकरि गृही मानिये है अर दान रहित गृह सहित भो पक्षीकी ज्यों गृही न मानिए है ।
भावार्थ - दान देय सो गृहस्थ है अर दान रहित केवल घर तो पक्षी भी होय है, तातें दान विना गृहहीते गृहस्थ न कहिये ऐसा जानना ||२४||
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किं द्रव्येण कुबेरस्य किं समुद्रस्य वारिणा । किमन्धसा गृहस्थस्य, भूक्तिर्यत्र योगिनाम् ॥ २५॥
अर्थ- जहां योगीश्वरनिका भोजन नाहीं तिस कुबेरके द्रव्य करि कहा अर समुद्रके जलकरि वहा अर गृहस्थ के भोजन करि कहा भावार्थ- जहां दान नाहीं तिन बहुत द्रव्यादिकनि करि कहा साध्य है किछु साध्य नाहीं, ऐसा जानना ||२५||
ध्यानेन शोभते योगी, संयमेन तपोधनः ।
सत्येन वचसा राजा, गृही दानेन चारुणा || २६॥