Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
नवम परिच्छेद
[२११
अर्थ-योगी तो ध्यानकरि सोहै है अर तपोधन जो तपस्वी है सो संयमकरि सोहै है अर सत्य वचन करि राजा सोहै है अर गृहस्थ सुन्दर दानकरि सोहै है ॥२६॥
तपोधनं गृहायात यो न गृह्णाति भक्तितः । चिन्तामणि करप्राप्तं स, कुनीस्त्यजति स्फुटम् ॥२७॥
अर्थ--घर प्रति आया जो तपोधन साधु ताहि जो भक्तितें न पडगाहै सो कुबुद्धि हस्तविर्षे आया जो चिन्तामणि ताहि प्रकटपर्ने तजै है ॥२७॥
विद्यमानं धनं धिष्ण्ये, साधुभ्यो यो न यच्छति ।
स वंचयति मूढात्मा, स्वयमात्मानमात्मना ॥२८॥
अर्थ- घर विष विद्यमान जो धन ताहि जो साधुनके अर्थ न देय हैं सो मुढात्मा आप ही आपकरि आपकौं ठग है । घरमें वन होतें मुनीनकौं आहारादि दान न देय है सो आपकौं ठग है ॥२८॥
स भण्यते गृहस्वामी, यो भोजयति योगिनः । कुर्याणो गृहकर्माणि, परं कर्मकरं विदुः ॥२६॥
अर्थ- जो योगीनकौं भोजन करावै है सो घरका स्वामी कहिये है अर दान विना केवल घरके कार्यकौं करै हैं ताहि पंडित हैं ते गुलाम कहैं है, ऐसा जानना ॥२६॥
यः सर्वदा क्षुधां धृत्वा, साधुवेलां प्रतीक्षते । स : साधूनामलाभेऽपि, दानपुण्येन युज्यते ॥३०॥
अर्थ-जो सदा क्षुधा धारणकरि साधूनिके आहारकी बेलांकी प्रतीक्षा करै हैं अर आहार बेला टले पीछे भोजन करे है सो पुरुष सांधूनका अलाभ होतें भी दानके पुण्यकरि युक्त होय है ॥३०॥
भवने नगरे ग्रामे, कानने दिवसे निशि ।
यो धत्त योगिनश्चित्तं, दत्तं तेऽभ्योऽमुना ध्रुवम् ॥३१॥ अर्थ--जो पुरुष घरविर्षे नगरविणे ग्रामविर्षे वनविष दिवस विर्षे