Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
अष्टम परिच्छेद
[१८६
ऊर्वोपरि निक्षेपे, पादयोविहिते सति । वीरासनं जिरं कर्त्त शक्यं वीरन कातरैः ॥४७॥
अर्थ-दोऊ चरणनिकौं ऊरू कहिए जांघ ऊपरि धरे संते वीरासन आसन होय है। या वोरासनकौं बहुत काल तांई वीर पुरुष ही करनेकौं समर्थ हैं, कायर समर्थ नही है; ऐसा जानना ॥४७॥
युतपाणिभवे योगे, स्मृतमुत्कु टुकासनम् । गवासनं जिनरुक्तमार्याणां यतिवंदने ॥४८॥
अर्थ-दोऊ एडीनके योग में उत्कुटकासन जानना। बहुरि आर्यिका जब मुनिनकौं वन्दना करै है तब जिनभगवान करि गवासन नामका आसन कह्या है ॥४८॥
विनयासक्तचितानां, कृतिकर्मविधायिनाम् ।...
न कार्यव्यतिरेकेण, परमासनमिष्यते ॥४६॥ - अर्थ-विनयविर्षे आसक्त चित्त जिनका ऐसे जे कृतिकर्म करनेवाले पुरुष तिनको कार्य बिना और आसन न कहिए है। .
भावार्थ - पद्मासन और कायोत्सर्ग इन आसननि विना अर आसन किछु कार्य विशेष होय तौ करै, कार्य विना दोय ही आसन करना जोग्य है, ऐसा मानना ॥४६॥
ऐसौं आसन का वर्णन किया । आगै स्थानका स्वरूप कहै हैं :स्थीयते येन तत् स्थानं, द्विःप्रकारमुदाहृतम् । वन्दना क्रियते यस्मादूर्वीभूयोपविश्य वा । ५०॥
अर्थ-जा करि स्थिर हूजिए सो स्थान दोय प्रकार कह्या है तातें बन्दना है, सो खड़े रहकरि वा बैठकरि करिये है ।
भावार्थ-खड़े रहना वा बैठना ऐसा दोय प्रकार स्थान जानना ॥५०॥
आगें कालका स्वरूप कहै हैं