Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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नवम परिच्छेद
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उपजे सन्तै जो किसी” भी क्रोध न करें है ताहि आचार्य क्षमावान कहैं हैं ॥१०॥
आगें उत्तम मध्यम जघन्य दातानिका स्वरूप कहैं हैं :--- सर्वैरलंकृतो वर्यो, जघन्यो वजितो गुणैः । मध्यमोऽनेकवाऽवाचि, दाता दानविचक्षणः ॥११॥
अर्थ--पूर्वोक्त भक्ति तुष्टि आदि गुण वा आगै क हैंगे तिन सर्व गुणनि करि भूषित है सो तो उत्कृष्ट दाता है अर तिन गुणनि करि रहित है सो जघन्य दाता है । बहुरि दान विर्षे विचक्षण जे पुरुष तिन करि मध्यमदाता अनेक प्रकार कह या है ॥११॥
आगै दाताका विशेष गुण कहै हैं :विनीतो धार्मिकः सेव्यस्तत्कालक्रमवेदकः । जिनेशशासनाभिज्ञो भोगनिस्पृहमानसः ॥१२॥ दयालुः सर्वजीवानां रागद्वेषादिवजितः । संसारासारतावेदी समदर्शी महोद्यमः ॥१३॥ परीषहसहो धीरो निजिताक्षो विमत्सरः । वरात्मसमयाभिज्ञः प्रियवादी निरुत्सुका ॥१४॥ वासितो वतिनां पतैः परासाधारणैर्गुणैः । लोकलोकोत्तराचारविचारी संघवत्सलः ॥१५॥ आस्तिको निरहंकारो वैयावृत्यपरायणः । सम्यकालंकृतो दाता जायते भुवनोत्तमः ॥१६॥
प्रर्थ-विनयवान होय, धर्मात्मा होय, क्रूरतादिक के अभावतें औरन करि सेवने योग्य होय, तत्काल क्रमका जाननेवाला होय ।
भावार्थ-जिस कालमैं जैसी वस्तु आदि चाहिये तैसा जानता होय; अर जिनेन्द्रके उपदेशका ज्ञाता होय, बहुरि भोगनि विर्षे वांछा रहित चित्त जाका ऐसा होय ॥१२॥ सर्व जीवनि पर दया सहित होय,