Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
अष्टम परिच्छेद ।
अर्थ – ऊँचा है हथेलीनका मुख जाका ऐसा हस्त युगलकौं पद्मासनादिकनिकी ओलीके मध्य विषै जो धारना ताहि जिन जे अहंतादिक ते योगमुद्रा कहैं हैं ॥ ५५ ॥
आगे मुक्ताशुक्तिमुद्रा का स्वरूप कहैं हैं
[ १६१
मुक्ताशुक्तिर्मता मुद्रा, जठरोपरि कूर्परम् ।
ऊर्द्ध जानो कर द्वन्द्व, संलग्नांगुलि सूरिभिः ॥५६॥
अर्थ – पेटके ऊपर है कूर्पर कहिए कुहनी जाविषै अर वुलनेनके ऊपर हैं हस्त युगल जाके अर भले प्रकार लग रही है अंगुली जाकी सो मुक्तामुक्तिमुद्रा आचार्यनि करि कही है ॥ ५६ ॥
आगैं कायोत्सर्ग का स्वरूप कहैं हैं-
त्यागो देहममावस्य तनन्सृतिरुदाहृता । उपविष्टोपविष्टादिविभेदन चतुविधा ॥ ५७॥
1
अर्थ - शरीर के ममत्वका जो त्याग सो कायोत्सर्ग उपविष्ठोपविष्टादि भेद करि च्यार प्रकार कह्या है ||५७||
तहां प्रथम उपविष्टोपविष्ट कायोत्सर्गकौं कहैं हैंयस्यामुपविष्टेन चित्ते ।
श्रार्शरौद्रद्वयं उपविष्टोपविष्टाख्या, कथ्यते सा तन्त्सृतिः ॥ ५८ ॥
अर्थ - जाविषै आर्त्त रौद्रध्यान दोनों बैठ करि चितिए सो उपविष्टोपविष्ट नामा कायोत्सर्ग कहिए है ।
भावार्थ - जा मैं जीवके परिणाम वा शरीर दोनों पड़ते हैं तातें उपविष्टोपविष्ट कह्या है ।। ५८ ।।
आगे उपविष्टोत्थित कायोत्सर्गकौं कहैं हैंधर्मशुक्लद्वयं यस्यामुपविष्टेन चित्यते ।
उपविष्टोत्थितां संतस्तां वदन्ति तन्त्सृतिम् ॥ ५६ ॥
,
अर्थ - जाविषै धर्म अर शुक्ल दोनों बैठ करि चितिए ताहि सन्त जन उपविष्टो स्थित कायोत्सर्ग कहैं हैं ।