Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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सप्तम परिच्छेद
[ १७७
पंचम गुणस्थान होय हैं ताकै दर्शन प्रतिमास लगाय ऊपर ऊपर विशुद्धताकी अधिकतातै ग्यारह भेद कहै हैं । सम्यक्सहित बारह व्रतनिहीकी ऊपर ऊपर निर्मलता होती जाय है, ऐसा जानना । इहां कोऊ कहै कि देशव्रतका घातक जो अप्रत्याख्यानावरण कषाय ताके उदयका तो अभाव भया अब ही अधिक विशुद्धता किस कर्मके उदयतें होय है ताका उत्तर - यद्यपि इहां अप्रत्याख्यानावरण कषायका उदय नाहीं तथापि प्रत्याख्यानावरण कषायका मन्द तीव्र उदयतें हीन अधिक विशुद्धिका होय है जैसे- प्रख्याख्यान कषायका अभाव होतें षष्टमादि गुणस्थान मैं हीनाधिक विशुद्धता संज्वलनके तीव्र मन्द उदय होय है तैसें, ऐसा जानना ॥७७॥ क्रमेणाश्चित्त निदधति मुदैकादश गुणा
नलं निदा गर्हानिहितमनसो येऽस्ततमसः । भवान् द्वित्रान् भ्रांत्वाऽमर मनुजयोभू रिमहसोविधुतैनोबंधाः परमपदवीं यांति सुखदाम् ॥७८॥
अर्थ - दूर भया है अज्ञान अन्धकार जिनका, बहुरि निंदा गर्हा विषै लगाया है मन जिनने ऐसे पुरुष अतिशय करि हर्ष सहित इन पूर्वोक्त ग्यारह गुणनकौं चित्त विषे धार हैं ते पुरुष बड़े हैं तेज जिनके ऐसे देव मनुष्यनि विषं दोय तीन भव भ्रमण करि बहुरि नाश किये है पापबंध जिनन ऐसे ते सुरूकी देनेवाली परमपदवी जो मुक्ति ताहि प्राप्त होय हैं ।
मावार्थ - जे सम्यग्दृष्टी ग्यारह प्रतिमाकौ धार हैं। आपकी निंदा गर्दा करें हैं ते दो तीन भव देवादिकके सुख भोगकै सिद्ध होय हैं, ऐसा जानना ॥७८॥
इदं धत्त भक्त्या ग. हिजनहितं योऽत्र चरितं मदक्रोधायासप्रमदमदनारम्भमकरम् ।
भवांभोधि तीवजननमरणावर्त्त निचितं ब्रजत्येषोऽध्यात्मामितगतिमतं निर्वृ तिपदम् ॥७६॥
अर्थ – जा पुरुष इहां भक्ति सहित ये गृहस्थ जनका हितरूप चारित्रको धार है सो यहु आत्मा ज्ञानी संसार - समुद्रकौं तिरके सर्वज्ञ देवकरि का जो शिवपद ताहि प्राप्त होय है । कैसा है संसार - समुद्र क्रोध स्वेद हर्ष काम आरंभ ये ही है मगर जा विषै, बहुरि जन्म मरणरूप भौंरनिकरि व्याप्त है ॥ ७६ ॥