Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
View full book text
________________
१७८]
श्री अमितगति श्रावकाचार
कवित्त छन्द । दर्शन व्रत सामायिक प्रोषध, सचित रात्रिभोजन परिहार । ब्रह्मचर्य आरंभ परिग्रह, अनुमतिविरति दसम सुखकार ॥ पुनि उद्दिष्टत्याग पडिमा, इम धारत जो श्रावक दुखहार । सो स्वर्गादि सम्पदा लहिक, होय अमितगति पद अविकार ॥
ऐसें श्री अमितगति आचार्यविरचित श्रावकाचारवि
सप्तम परिच्छेद समाप्त भया ।
अष्टम पच्छेिदः।
आगें छह प्रकार आवश्यककौं कहे हैं :जिनं प्रणम्य सर्वीयं, सर्वज्ञ सर्वतो मुखम् ।
आवश्यकं मया षोढा, संक्षेपेण निगद्यते ॥२॥
प्रयं-जिनदेवकौं नमस्कार करिकै मोकरि छह प्रकार संक्षेपकरि आवश्यक कहिए है। कैसे हैं जिनदेव सर्वीयं कहिए सर्वज्ञ याकार रूप परिणया जो ज्ञान ता स्वरूप है, बहुरि सर्वका जाननेवाला है बहुरि सर्व तरफ है मुख जाका ऐसा है।
भावार्थ-सर्वदर्शी है ॥१॥ प्रागमोऽनन्तपर्यायौ, यतो जनो व्यवस्थितः ।
अभिधातुं ततः केन, विस्तरेण स सक्यते ॥२॥
अर्थ--जाते जिनभाषित आगम है सो अनन्तभेद स्वरूप तिष्ट है तातें विस्तार सहित कौन करि कहनेकौं समर्थ हूजिए है ॥२॥
पत्तोऽपि संति ये बालाश्चिमाकारेषु जन्तुषु । अस्यायबोवतस्तेषामुपकारो भविष्यति ॥३॥