Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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षष्ठम परिच्छेद
[१३७
सम्यक्त पर्वत के तोडनेकौं वज्र समाज जो मिथ्या दृष्टीनिका वचन सो सर्वथा त्यागना योग्य है ।। ४१ ॥
अज्ञानतो यदेनो जीवानां भायते परमधोरम् । तच्छक्यते निहंतु ज्ञानव्यतिरेकतः केन ॥ ४२ ॥
अर्थ-जो जीवनिकै अज्ञानतें महा घोर पाप उपजै है सो पाप ज्ञान विना कौन करि हनिवेकू समर्थ हूजिए है ।
भावार्थ-अज्ञानजनित पाप ज्ञानही मिटै औरनितें न मिटै है, ऐसा जानना ॥ ४२ ॥
यो धर्मार्थं छित्ते हिंस्राहिंस्रसुखदुःखिनो भविनः । पीयूषं स्वीकत्त स हंति, विषविटपिनो नूनम् ॥ ४३ ॥
प्रर्थ-जो जीव धर्मके अर्थ हिंसक वा अहिंसक सुखी वा दुखी जीवनिकौं मारे है सो निश्चय करि अमृतके अंगीकार करनेकौं विषवृक्षनिकौं हने है, ताडे है; तहां अमृत काहेका ॥ ४३ ॥
मनसा वचसा वपुषा हिंसां, विदधाति यो जनो मूढ़ः। जन्मवनेऽसौदीर्घे दीर्घ, चंचूर्यते दुःखी ॥ ४४ ॥
अर्थ-जो मूढ़ जन मन करि वचन करि कायकरि हिंसा करै है तो यह दुःखी भया सन्ता दीर्घ संसार वन विर्षे बहत काल तांई अतिशय करि चूर्ण कीजिए है ॥ ४४ ॥
इहां तांई अहिंसा अगुवृतका वर्णन किया। आगै सत्य अणुवृतका वर्णन करै है
यम्लेच्छेष्वपि गर्दा, यदनादेयं जिघृक्षतां धर्मम् । यदनिष्टं साधुजनैस्तद्वचनं नोच्यते सद्भिः ॥ ४५ ॥
अर्थ-जो वचन म्लेच्छनि विषं भी निंदनीक अर धर्मकौं ग्रहण करनेके वांछक जे पुरुष तिनके अनादरने योग्य अर साधुजननि करि इष्ट नाहीं ऐसा जो असत्य वचन सो संतजननि करि नाही' बोलिए है ॥ ४५ ॥