Book Title: Amitgati Shravakachar
Author(s): Amitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
Publisher: Bharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
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श्री अमितगति श्रावकाचार
आगें फेर कहैं हैं
तुल्यप्रतापोद्यमसाहसानां केचित्रभंते निजकार्यसिद्धिम् ।
परे न तामत्र निगद्यतां मे, कर्मास्ति हित्वा यदि कोऽपि हेतुः ॥ ५८ ॥
केई
अर्थ - समान है प्रताप अर उद्यम जिसके ऐसे पुरुषनिकै मध्य पुरुष अपने कार्यकी सिद्धिकों पावैं हैं । बहुरि और केई ता कार्यकी सिद्धिकी न पावै हैं; सो इहां कर्म सिवाय और कोई भी कारण होय तौ मोमैं कहि ।
भावार्थ - समान पुरुष समान उद्यम करै तहां कोईकै सिद्धि होय कोईकै न होय सो इहां कर्म सिवाय और कारण नाहीं, ऐसा
जानना ॥ ५८ ॥
आगें फेर कहै हैं
विचित्रदेहाकृति वर्णगंधप्रभावजातिप्रभवस्वभावाः ।
केन क्रियते सुनेंगवर्गाश्चिरन्तनं कर्म निरस्य चित्राः ॥ ५६ ॥
अर्थ – लोक विषै नानाप्रकार शरीर वर्ण गंध वीर्य जाति इनके उपजावने रूप हैं स्वभाव जिनके ऐसे जे अनेक जीवनिके समूह ते पहला पुरातन कर्म विना कौन करि करिए है ।
भावार्थ - पहला कर्म न होय तो आगामी नाना शरीर का हेतै उपजे, ता प्राचीन कर्म मानना यौग्य है ॥ ५६ ॥
विवद्धयं मासान्नव गर्भमध्ये, बहुप्रकारैः कलिलादिभावैः । उद्वर्त्य निष्कासयते सवित्र्या को गर्भतः कर्म विहाय पूर्वम् ॥ ६० ॥
अर्थ- गर्भ विषै नव मास तांई नानाप्रकार रुधिरादि भावनि माताके गर्भ तैं पूर्व कर्म बिना कौन
करि बढ़ायकै अर पलटकै
निकास है ।