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________________ १७० ] श्री अमितगति श्रावकाचार आगें फेर कहैं हैं तुल्यप्रतापोद्यमसाहसानां केचित्रभंते निजकार्यसिद्धिम् । परे न तामत्र निगद्यतां मे, कर्मास्ति हित्वा यदि कोऽपि हेतुः ॥ ५८ ॥ केई अर्थ - समान है प्रताप अर उद्यम जिसके ऐसे पुरुषनिकै मध्य पुरुष अपने कार्यकी सिद्धिकों पावैं हैं । बहुरि और केई ता कार्यकी सिद्धिकी न पावै हैं; सो इहां कर्म सिवाय और कोई भी कारण होय तौ मोमैं कहि । भावार्थ - समान पुरुष समान उद्यम करै तहां कोईकै सिद्धि होय कोईकै न होय सो इहां कर्म सिवाय और कारण नाहीं, ऐसा जानना ॥ ५८ ॥ आगें फेर कहै हैं विचित्रदेहाकृति वर्णगंधप्रभावजातिप्रभवस्वभावाः । केन क्रियते सुनेंगवर्गाश्चिरन्तनं कर्म निरस्य चित्राः ॥ ५६ ॥ अर्थ – लोक विषै नानाप्रकार शरीर वर्ण गंध वीर्य जाति इनके उपजावने रूप हैं स्वभाव जिनके ऐसे जे अनेक जीवनिके समूह ते पहला पुरातन कर्म विना कौन करि करिए है । भावार्थ - पहला कर्म न होय तो आगामी नाना शरीर का हेतै उपजे, ता प्राचीन कर्म मानना यौग्य है ॥ ५६ ॥ विवद्धयं मासान्नव गर्भमध्ये, बहुप्रकारैः कलिलादिभावैः । उद्वर्त्य निष्कासयते सवित्र्या को गर्भतः कर्म विहाय पूर्वम् ॥ ६० ॥ अर्थ- गर्भ विषै नव मास तांई नानाप्रकार रुधिरादि भावनि माताके गर्भ तैं पूर्व कर्म बिना कौन करि बढ़ायकै अर पलटकै निकास है ।
SR No.007278
Book TitleAmitgati Shravakachar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitgati Aacharya, Bhagchand Pandit, Shreyanssagar
PublisherBharatvarshiya Anekant Vidwat Parishad
Publication Year
Total Pages404
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size26 MB
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